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नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व
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मरने के समान है ।' संयम सहित यदि प्राणी घोर तपस्या में रत रहता है तो समस्त कर्मों का क्षय करते हुए वह परमानन्द प्राप्त करता है। समस्त प्रकार के सुखों की उपलब्धि तपाराधन से ही संभव है, अन्यथा अन्य सभी संसारी सुख निदान दुःखमूलक हैं ।
उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धार्मिक क्षेत्र में विश्वास का बहुत बड़ा हाथ है । धर्म-भावना को प्रगाढ़ करने में विश्वासमूलक तत्त्व महत्त्वपूर्ण योग देते हैं । वस्तुतः विश्वास के बिना धर्म के कोमल स्वर का गुजन कहीं सुनायी नहीं देता। इसके साथ ही धार्मिक पृष्ठभूमि में कर्मकाण्ड (क्रियाकाण्ड) को भी भुलाया नहीं जा सकता है ।
कर्मकाण्ड
जैन धर्म में ज्ञान, श्रद्धा, भक्ति और विश्वास के साथ ही कर्मकाण्ड की समान उपादेयता स्वीकार की गयी है । मोटे तौर पर धर्म के दो पक्ष होते हैं—(१) ज्ञानकाण्ड और (२) कर्मकाण्ड । अभ्यन्तराचार को ज्ञान काण्ड के नाम से और बाह्याचार को कर्मकाण्ड के नाम से अभिहित किया गया है। कर्मकाण्ड के बिना ज्ञानकाण्ड निरर्थक है और ज्ञान के बिना समस्त क्रियाएँ शून्यवत् हैं । वस्तुतः ज्ञान और क्रिया अभिन्न हैं । ___ कर्मकाण्ड की आवश्यकता केवल गृहस्थों को ही नहीं, गृहत्यागियों को भी है । इसी के आधार पर जैन धर्म में गृहस्थी (श्रावक) और गृहत्यागी (साधु-मुनि) दो प्रकार के साधक माने गये हैं। जो गृहस्थाश्रम में रहता हुआ परिवार के साथ अपना धर्म निभाता है और आत्म शुद्धि के लिए प्रयत्न करता है, वह गृहस्थ साधक है और जो कुटुम्ब, धन, मकान आदि दस प्रकार के बाह्य परिग्रह का त्यागकर अरण्यवासी बन जाता है, वह साधु साधक है।
१. पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ६४-६५, पृष्ठ २४७ ।' २. चेतन कर्म चरित्र, पद्य १८६-८६, पृष्ठ ७३-७४ । १. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ २४ । *. सीता चरित, पद्य २२२३, पृष्ठ १२७ ।