Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 355
________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३६५ (१) पाँच महाव्रत --अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मवर्य और अपरिग्रह | (२) पाँच समिति - जैसे, ईर्ष्या, उत्सर्ग आदि । (३) पाँच इन्द्रियों पर विजय । (४) छः आवश्यक कर्म - सामायिक, स्तुति, वंदना, आदि । (५) सात शेष गुण - यथा, दिन में एक बार भोजन, भूमिशयन आदि । साधु सबसे उत्तम है क्योंकि वही सिद्ध हो सकता है । साधु हुए बिना निर्वाण-पद भी प्राप्त नहीं होता ।" पूर्णतः आचार को पालने वाला साधु ही वंदनीय है । " प्रतिक्रमण आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में अनेक ऐसे स्थलों की अवतरणा हुई है, जहाँ साधनाभिमुख पात्र दीक्षा लेकर तपस्वी रूप में तपश्चर्या करते हैं और साधु के आचारों को पालते हैं । ३ ' पार्श्वपुराण' का आनन्दकुमार नाम का राजा साधु धर्म में दीक्षित होकर वनवीर की भाँति वनवास करता है, बारह प्रकार का दुर्धर्ष तप तपता है, क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण आदि बाईस परीषह सहन करता है, क्षमा मार्दव- आर्जव आदि धर्म के दस लक्षणों के अनुकूल आचरण करता है, सोलह कारण भावनाओं से भावित होता है और इस प्रकार वह नाना क्रियाओं से तीर्थंकर-पद प्राप्त करता है | " संक्षेप में साधुचर्या बड़ी कठिन है | साधु-धर्म- अंगीकार करने का अर्थ पार्श्वपुराण, पद्य १५१, पृष्ठ १५६ । १. ९. वही, पद्य १५६, पृष्ठ १५६ । ३. पार्श्वपुराण, पद्य ११३, पृष्ठ ६० । ४. वही, पद्य १३६-३८, पृष्ठ ६५ । वही, पद्य १६८-६६, पृष्ठ ६८ । ५.

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