Book Title: Jain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Author(s): Lalchand Jain
Publisher: Bharti Pustak Mandir

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Page 333
________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपावं यही बात सिद्ध के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए 'चेतन कर्म चरित्र' काव्य में भी कही गयी है।' अन्य प्रबन्धकाव्यों में भी वे बंदनीय रहे हैं । संकट के क्षणों में भी उन्हें शील-विभूषित चरित्रों द्वारा याद किया गया है। आगे श्रद्धा के आलम्बन आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का स्वरूप द्रष्टव्य है । आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीनों ही वीतरागी और गुरुपद के धारक हैं। इनके मूल स्वरूप में कोई तात्त्विक अन्तर परिलक्षित नहीं होता। गंगा का जल एक ही है, जो तीन धाराओं में विभक्त हो गया है। आचार्य, उपाध्याय और साधु, इन तीनों परमेष्ठियों का अन्तरंग, बाह्म वेष, बारह प्रकार का तप, पाँच प्रकार का महाव्रत-धारण, तेरह प्रकार के चारित्र का पालन, सम्यग्दर्शनज्ञान-चरित्रस्वरूप रत्नत्रय, क्रोधादि कषायों का जीतना और उत्तम क्षमादि दश धर्मों का धारण करना आदि समान हैं।' ___ जो महा संयमी साधु दूसरे मुनियों को दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य-इन पांचों आधारों का आचरण कराता है, वह आचार्य कहलाता है। जो गुरुजन शास्त्रों का अध्ययन कराते हैं तथा शिष्यों को उनका अध्ययन कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं ।' आचार्य और उपाध्याय का जो स्वरूप है, वही लगभग साधु का है, अतः तीनों ही गुरु रूप में समान रूप से पूज्य हैं। १. चेतन कर्म चरित्र, पद्य २८४, पृष्ठ ८३ । २. शीलकथा, पृष्ठ ७६। १. देखिए-पंचाध्यायी २।६३६ का भावानुवाद, जैन धर्मामृत, : पं० हीरालाल जैन, पृष्ठ ८२-८३ । ५. देखिए-वही, २१६४५ का भावानुवाद, वही, पृष्ठ ८३। ५. देखिए-वही, २०६५६ का भावनानुवाद, वही, पृष्ठ ८४-८५ ।

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