________________
३४८
जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
लेता है, मरता है और फिर जन्म लेता है । वह चौरासी लाख योनियों में भटकता है, जहाँ उसे अगणित कष्ट सहने पड़ते हैं। इसीलिए जन्म, जरा और मरण' दुःखस्वरूप हैं ।
जन्म-मरण का चक्र अनादिकाल से चला आ रहा है। पंचेन्द्रियों का दास बनकर मानवात्मा सदैव इस चक्र के नीचे पिसता रहता है।
___मरण-दिवस का कोई नियम नहीं है । अटल नियम यही है कि जो जन्म धारण करता है, निदान वह मृत्यु को प्राप्त होता है ।' प्राणी के कर्म ही पुनर्जन्म के कारण बनते हैं । कर्म के अनुसार ही वह मनुष्य, तिर्यंच, नारक या देव जन्म धारण करता है। जिसने तप और काय-क्लेश से घातिया कर्मों का विनाश कर लिया है, वह मोक्ष-दशा का अधिकारी हो जाता है; फिर पुनर्जन्म का-जन्म-मरण का भय नहीं रहता। आगे चलकर 'स्वप्न' का जगत् भी देखिये ।
स्वप्न
स्वप्न अपना फल देते हैं । शुभाशुभ स्वप्नों का फल शुभाशुभ होता है। प्रबन्धकाव्यों में दिखायी देने वाले स्वप्न का श्रेय प्रायः स्त्रियों को ही दिया गया है । रात्रि में वे स्वप्न देखती हैं और प्रात: वे उनके फल पर विचार-विमर्श कर शुभफल की लालसा से हर्षविभोर हो उठती हैं।"
१. बंकचोर की कथा, पद्य २६०, पृष्ठ ३० । मरण समान न भै को होय । मरण समान दुष नहिं कोय ॥.
-सीता चरित, पद्य १११०, पृष्ठ ६० । " पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १३१, पृष्ठ २५० । ५. पार्श्वपुराण, पद्य ६७, पृष्ठ ५५। ५. सीता चरित, पद्य २१६६, पृष्ठ १२६।। ६. चेतन कर्म चरित्र, पद्य २८१, २८२, २८४, पृष्ठ ८३ ।
(क) नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ २। (ख) पार्श्वपुराण, पृष्ठ २५-२६॥