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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
अन्य पर्यायों में प्राणी के कष्टों का कोई आर-पार नहीं है, अतः मनुष्य जन्म ही उत्तम कुल धर्म है । मनुष्य का यह अचल विश्वास ही वरेण्य है कि 'मैं परम धर्म को छोड़कर अन्य का ध्यान नहीं करूंगा, क्योंकि मनुष्य जन्म दुर्लभ है, वह फिर प्राप्त नहीं होगा। मुझे जो शुभ कर्म करने हैं, वह अभी कर लूं। फिर न जाने कब ऐसा जन्म और ऐसा उत्तम कुल मिले । राजकुमारी राजुल के शब्दों में 'ऐसी कौन माता है, जो गोद के बालक को छोड़कर पेट के बालक की आशा करे ?'२ 'शतअष्टोत्तरी' प्रबन्धकाव्य में कहा गया है
चेतन ! यह मनुष्य-जन्म फिर नहीं मिलेगा । अज्ञान में मतवाला बन कर तू इसे वृथा क्यों खोता है? अरे बाबले!बह पुण्य-प्रताप से यह उत्तम भव मिला है। तू अब भी संभल जा, यही एक दाव है । यह धार्मिक मान्यता विश्वास के अन्तर्गत आती है और 'कर्म-फल' भी विश्वास की भित्ति पर टिका हुआ है।
कर्म-फल
आत्मा कर्ता है और कर्म का फल कर्ता को भोगना पड़ता है अर्थात आत्मा ही कर्ता और भोक्ता है। कर्म के साथ फल का अटूट सम्बन्ध है। किये हुए कर्म अपना फल दिये बिना नहीं रह सकते । समस्त संसारी जीव अपने कर्मों के अनुसार ही अपनी पर्याय ग्रहण करते हैं।' शुभाशुभ कर्मों का फल शुभाशुभ ही होता है। जो जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है । दीनता प्रकट करने या घिघियाने से उसे कर्म-फल
सीता चरित, पद्य २१९७, पृष्ठ १२६ । १. राजुल पच्चीसी, पद्य ७, पृष्ठ ४ ।
शतअष्टोत्तरी, पद्य ५, पृष्ठ ६ ।
सीता चरित, पद्य ७३, पृष्ठ ६ । ५. पावपुराण, पद्य ८०, पृष्ठ ४८ । ५. सीता चरित, पद्य ७२, पृष्ठ ६।