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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
ममत्त्व भाव परिग्रह है । यह एक विषाक्त और हिंसात्मक भाव है । परिग्रह कष्टों का मूल है । इसी से असंतोष, राग-द्वेष, तृष्णा, माया, मोह, क्रोध, लोभ आदि कुत्सित विकारों को जन्म मिलता है। परिग्रह-गठरी उतारकर चारित्रपथ-ग्रहण से ही मनुष्य आत्म-भाव में लीन होकर निर्ग्रन्थ बन सकता
अपरिग्रह ही मुक्ति का हेतु है । इसी प्रकार अनात्मभाव भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं हैं । अतः उन पर विचार करना भी अनिवार्य है ।
अनात्म भाव
अनात्मभाव आत्म-शत्र हैं, जो राग-द्वेषादि से उत्पन्न होते हैं। इन्हें भावबन्ध भी कहते हैं, जिनसे चेतन कर्मबद्ध होता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, वैर, चौर्य, कुशील, प्रमाद, हिंसा आदि सभी अनात्मभावों की गणना में आते हैं । इनसे आत्मगुणों का हनन होता है और इस प्रकार ये आत्म-स्वातंत्र्य में बाधा उपस्थित करते हैं। मानव के ससार-परिभ्रमण एवं नाना कष्टों में संग्रस्त होने के ये ही कारण हैं, अस्तु ऐसे विकारी भावों पर विजय प्राप्त किये बिना प्राणी की मुक्ति कहाँ ?
कामाधीन मनुष्य इन्द्रियगत दासता की लौह-शृंखलाओं में जकड़ा रहता है । इससे उसकी स्व-पर-विवेक बुद्धि नष्ट हो जाती है । कामी कान होते हुए भी बहरा है, आँख होते हुए भी अन्धा है। उस पर पागलपन सवार हो जाता है; विचार-अविचार का उसे ध्यान नहीं रहता । विषय-वासना से वह अपनी सुध-बुध खोकर अर्तध्यानी हो जाता है । काम-व्याप्त कोई भी नर-नारी सचेत नहीं रहता । कामी पुरुष का कोई यौवन भी नहीं होता क्योंकि उसका यौवन तो सदैव अग्नि में जलता रहता है। कामासक्त नर
" पार्श्वपुराण, पद्य १५०, पृष्ठ १५६ । २. वही, पद्य १३४, पृष्ठ १५४ । ३. सीता चरित, पद्य ६५२, पृष्ठ ५२ ।
शतअष्टोत्तरी, पद्य ५१, पृष्ठ १६ ।