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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
व्रत-तपादिका शील के अभाव में कोई मूल्य नहीं है । असंख्य धार्मिक क्रियाएँ तब तक शून्यवत् हैं, जब तक कि उनके प्रारम्भ में 'शील का अंक' नहीं जोड़ दिया जाता
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शील के प्रतिकूल आचरण करने वाली नारी को नरकगति मिलती है और सात भवों तक छेदन, भेदन, ताडनादि अनिर्वचनीय पीड़ाओं को सहना पड़ता है । इसी प्रकार परतिय लंपट पुरुष संसार में भ्रमित होता रहता है और उसके पापों का कभी अन्त नहीं होता है । परनारीगमन के समान कोई अन्य पाप नहीं है । इसके परिणामस्वरूप इस लोक में यश की क्षति और परलोक में दुःख की प्राप्ति होती है। वस्तुतः कुशील का परिणाम बड़ा भयंकर होता है । शील भंग से पाप और पाप से नरक का द्वार मिलता है ।"
शीलव्रत के पालन से भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि मिलती है | अधिक क्या कहा जाय ? शील की सहायता से ही चक्रवर्ती पद, इन्द्रासन, तीनों लोकों का राज्य एवं हरि-पद प्राप्त हो जाता है । शील के समान संसार में कोई दूसरी वस्तु नहीं है; यही ऐसी अमूल्य वस्तु है जिससे अजर-अमर पद प्राप्त होता है ।" शील के साथ क्षमा भी द्रष्टव्य
है |
क्षमा
घने बिंदु जो दीजिए, एक अंक नहि होय । तैसे निरफल जानिए, शील बिना सब कोय ।
जैन धर्म में क्षमा को 'वीरस्य भूषणम्' स्वीकार करते हुए यह सिद्ध
शील कथा, पृष्ठ २१ ।
राजुल पच्चीसी, छन्द १४, पृष्ठ ८ ।
* यशोधर चरित, पद्य १३७७, पृष्ठ १०, अधिकार १ ।
४.
पार्श्वपुराण, पद्य ७५, अधिकार १, पृष्ठ १० ।
१.
२.
५. श्रेणिक चरित, पद्य ४७३, पृष्ठ ३४ ।
६. शील कथा, पृष्ठ ७८ ।