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________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन व्रत-तपादिका शील के अभाव में कोई मूल्य नहीं है । असंख्य धार्मिक क्रियाएँ तब तक शून्यवत् हैं, जब तक कि उनके प्रारम्भ में 'शील का अंक' नहीं जोड़ दिया जाता ३५४ शील के प्रतिकूल आचरण करने वाली नारी को नरकगति मिलती है और सात भवों तक छेदन, भेदन, ताडनादि अनिर्वचनीय पीड़ाओं को सहना पड़ता है । इसी प्रकार परतिय लंपट पुरुष संसार में भ्रमित होता रहता है और उसके पापों का कभी अन्त नहीं होता है । परनारीगमन के समान कोई अन्य पाप नहीं है । इसके परिणामस्वरूप इस लोक में यश की क्षति और परलोक में दुःख की प्राप्ति होती है। वस्तुतः कुशील का परिणाम बड़ा भयंकर होता है । शील भंग से पाप और पाप से नरक का द्वार मिलता है ।" शीलव्रत के पालन से भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की समृद्धि मिलती है | अधिक क्या कहा जाय ? शील की सहायता से ही चक्रवर्ती पद, इन्द्रासन, तीनों लोकों का राज्य एवं हरि-पद प्राप्त हो जाता है । शील के समान संसार में कोई दूसरी वस्तु नहीं है; यही ऐसी अमूल्य वस्तु है जिससे अजर-अमर पद प्राप्त होता है ।" शील के साथ क्षमा भी द्रष्टव्य है | क्षमा घने बिंदु जो दीजिए, एक अंक नहि होय । तैसे निरफल जानिए, शील बिना सब कोय । जैन धर्म में क्षमा को 'वीरस्य भूषणम्' स्वीकार करते हुए यह सिद्ध शील कथा, पृष्ठ २१ । राजुल पच्चीसी, छन्द १४, पृष्ठ ८ । * यशोधर चरित, पद्य १३७७, पृष्ठ १०, अधिकार १ । ४. पार्श्वपुराण, पद्य ७५, अधिकार १, पृष्ठ १० । १. २. ५. श्रेणिक चरित, पद्य ४७३, पृष्ठ ३४ । ६. शील कथा, पृष्ठ ७८ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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