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________________ नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व ३५५ किया है कि क्षमा कायरता का लक्षण नहीं, वीरता का लक्षण है और वीरों का भूषण है । वहाँ क्षमा को व्यक्ति के चरित्र का एक प्रमुख अंग माना है। आलोच्य प्रबन्धों में क्षमा को तात, मात, मित्र और अवदात की संज्ञा दी गयी है । क्षमावान् पुरुष ही संसार में अधिकाधिक भूषणों से भूषित होते हैं। आगे 'अहिंसा' लीजिये। अहिंसा जनों ने अहिंसा में बड़ी आस्था प्रगट की है। पंच अणुव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में अहिंसा को प्रथम स्थान प्राप्त है। शेष चारों भी अहिंसा के ही विविध रूप हैं। हमारे प्रबन्धों में स्थल-स्थल पर अहिंसा तत्त्व का विशद वर्णन हुआ परिलक्षित होत है । अहिंसा धर्म है और हिंसा अधर्म । अहिंसा का मूलाधार जीव दया है। जीव दया ही उत्तम धर्म है, जीव दया ही स्वर्गसुखदायक है। जो भव्य जीव हृदय में दया धारण करता है, वही स्वात्म-रस का पान करता है । स्वात्म-रस के पान करने से शिवपद प्राप्त होता है । जहाँ जीवों पर करुणा की जाती है, वहीं धर्म है । जहाँ इस करुणा का व्यापार नहीं होता, वहाँ प्राणी कर्मबन्ध करता है । कर्मबन्ध से सर्वसुख नष्ट होकर नरक-निवास मिलता है । अतएव जो अदया 'भाव समग्र दुःखों का मूल है, उसका परित्याग ही हितकर है। इसके साथ 'अपरिग्रह' भी धार्मिक विश्वास का अंग है। अपरिग्रह संग्रहवृत्ति के निरोध हेतु अपरिग्रह एक आवश्यक व्रत है। स्वाधिकार १. यशोधर चरित, पद्य ३२० । २. वही, पद्य ४०६ । ३. वही, पद्य ४०६, पृष्ठ ११ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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