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३४६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन धार्मिक उपादानों या धार्मिक रीति-नीतियों में जब तक व्यक्ति के हृदय में आस्था नहीं है, तब तक वह धार्मिक कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता। विश्वास में बड़ा बल है; उसकी कभी न बुझने वाली शाश्वत ज्योति को कोई चुनौती नहीं दे सकता; वह धर्म की नींव है।
आलोच्य प्रबन्धकाव्यों में विश्वासमूलक अनेक तत्त्वों की चर्चा है, जैसे-आत्मसत्ता, पुरुषार्थ, मोक्ष, स्वर्ग-नरक, जन्म, पुनर्जन्म, स्वप्न, दुर्लभ मनुष्यभव, कर्मफल, पुण्य-पाप, होनहार, दान, शील, क्षमा, अपरिग्रह, ध्यान, योग-तप आदि ।
आत्म-सत्ता
हमारे काव्यों में आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की गयी है । वहां आत्मा अखण्ड, अमूर्तिक और चेतनायुक्त है। वह घट-घट में प्रत्यक्ष है । वह स्वयं कर्ता और भोक्ता है । पुरुषार्थ, आत्म-विकास और मोक्ष
पुरुषार्थ का आत्मा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह आत्मविकास का वह संबल है, जिससे आत्मा अपनी मुक्तावस्था का अनन्त सुख भोगता है। चारों पुरुषार्थों को साधने वाला पुरुष ही सत्पुरुष है। इसी से जीव साधुता ग्रहण कर आत्म-धर्म का पालन करते हुए सिद्ध, बुद्ध, तीर्थंकर या परमात्मा-पद को प्राप्त करता है। इसी से उसे स्वर्ग और मोक्ष मिलता है । मोक्ष आत्मविकास की अन्तिम अवस्था है, जहां से फिर उसका आवागमन नहीं होता; जन्म-मरण का दुःख नहीं सहना पड़ता। आगे स्वर्ग-नरक की भूमि पर आइये।
१. शतअष्टोत्तरी, पद्य ३, पृष्ठ ८ ।
पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य १४४, पृष्ठ २५१ ।
सीता चरित, पद्य ७३, पृष्ठ ६ । ४. पाशवपुराण, पद्य १५६, पृष्ठ ६२ । ५. चेतन कर्म चरित्र, पद्य २८२, पृष्ठ ८३।