________________
३४४
जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
गुरु
भारतीय संस्कृति गुरु-प्रधान संस्कृति है, जिसका प्रतिबिम्ब समीक्ष्य कृतियों में भी झलकता है। यहाँ गुरु कहीं ईश्वर तुल्य, कहीं ईश्वर और कहीं ईश्वर से बढ़कर स्वीकार्य हुआ है। गुरु कल्याण, ज्ञान और साधुता का प्रतीक है । वह लोक-जीवन में प्रेरणा का मंत्र फूककर उसे सरस, सुन्दर और विभवशाली बनाता है। विश्व के गरल को पीकर अमृतपान कराता है। उसके चरण-कमलों का स्पर्श आँसू को मोती, अविद्या को विद्या और लोहे को कंचन के रूप में परिवर्तित कर देता है। उसका योगी, मनीषी और तेजस्वी रूप; उसका निस्पृही, कष्टसहिष्णु और परदुःखकातर रूप जन-जन को अपनी आरती, अर्चना और पूजा के लिए प्रेरित करता है।
प्रबन्धकाव्यों के श्रेष्ठ चरित्र के साथ विकृत चरित्र भी गुरु के प्रति श्रद्धावनत रहे हैं । 'श्रोणिक चरित' में महाराजा अपने सिंहासन को छोड़कर उनके चरणों में शीश झुकाते हैं। 'वंकचोर की कथा' में चोर उनके वचनों का पालन करता है।' 'सूआबत्तीसी' में आत्मा रूपी तोता गुरुस्मरण से ही अपने घट के पट खोलता है और बार-बार उनके गुणों की स्तुति करता है। ___कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे गुरु की महिमा विपुल है, वैसे ही उसके प्रति व्यक्त किये गये श्रद्धा-भाव भी विपुल हैं। गुरु संसार रूपी महा समुद्र के लिए जहाज के समान है। वह अशुभ कर्मों और पापों का प्रक्षालन करता है । वह स्वयं तरता है और भव को तारता है । जग में गुरुसम कोई महान् नहीं है, जिसकी संगति से दुर्बुद्धि का क्षय होकर सुबुद्धि का
१. पाशवपुराण, पद्य ८०, पृष्ठ- ५७ ।
सूआबत्तीसी, पद्य ४-६, पृष्ठ २६८ । यशोधर चरित्र, पद्य २४८ । श्रेणिक चरित, पद्य १०८६-८८, पृष्ठ ८१ । बंकचोर की कथा, पद्य २२५, पृष्ठ २६ । . सूआबत्तीसी, पद्य २६-२७ ,पृष्ठ २७० ।