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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
ऊपर नीतिविषयक सम्पूर्ण विवेचन का सार यह है कि कुछ समीक्ष्य प्रबन्धकाव्यों में यत्र-तत्र नीति कथन की परम्परा का निर्वाह हुआ है । कथा की पृष्ठभूमि में नीतियाँ स्वतः ही स्थान पा गयी हैं। इस प्रकार इन नीतियों के माध्यम से प्रबन्धकाव्यों ने अपनी आत्मा के साथ-साथ लोकवाणी को मुखरित किया है । नीति कथनों में प्रायः सरल शैली का व्यवहार हुआ है और उनमें काव्यत्व सुरक्षित रहा दिखाई देता है ।
२. धर्म
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आलोच्य प्रबन्धकार जैन कवि थे, अतः उनके काव्यों में जैन धार्मिक तत्त्वों की झलक मिल जाना स्वाभाविक है । दूसरे शब्दों में, उनके प्रबन्धों को धर्म से पृथक् करके देखना प्रायः कठिन है । उनमें श्रद्धा, भक्ति, विश्वास, क्रियाकाण्ड आदि के तत्त्व कहीं कम और कहीं अधिक मात्रा में उभरे हुए परिलक्षित होते हैं ।
संक्षेप में विवेच्य कृतियों की धार्मिक भूमिका के संदर्भ में तीन बातें सामने आती हैं— श्रद्धा, विश्वास और क्रियाकाण्ड | हम इन्हीं तीनों को आधार मानकर प्रबन्धों के धार्मिक परिपार्श्व का अध्ययन करेंगे ।
श्रद्धा
श्रद्धा धर्म की पहली सीढ़ी है। वह महत्त्व की आनन्दपूर्ण स्वीकृति के साथ-साथ पूज्य बुद्धि का संचार है ।" श्रद्धा वह भाव है, जो श्रद्धालु के हृदय में श्रद्धेय के गुणों से अभिभूत होने पर उदित होता है ।
हमारे प्रबन्धों में श्रद्धा के प्रमुख आलम्बन हैं - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सरस्वती आदि ।
इनमें प्रथम पाँच - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य,
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उपाध्याय और साधु को
पं० रामचन्द्र शुक्ल : चिन्तामणि (पहला भाग), पृष्ठ २३ । वही, पृष्ठ १७ ।