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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
राज्य
शासन शक्ति का है। जिसका बल है, उसी का राज्य है। राज्य-समाज भारी पाप और वैर-विद्वष आदि का कारण है :
राज समाज महा अघ कारन, वैर बढ़ावन हारा ।
राजा, न्याय और दण्ड
राजा मूलतः करुणा की मूर्ति और धर्मात्मा हो । जो राजा करुणाविहीन है, धर्म-मार्ग से च्युत है, वह अपने समूचे वंश का विनाशक है। राजा न्याय से सुशोभित होता है । उसका न्याय हंस के नीर-क्षीर विवेक की भाँति होना चाहिए । न्याय के कारण राजा यदि अपने पुत्र को भी राज्य से निष्कासित कर दे, तो ऐसा राजा परम न्यायी है; उसका राज्य जगतीतल में अटल रहता है और उसका यश सारे संसार में फैलता है।
जो अपराधी दण्ड-योग्य है, उस पर करुणा करना अनुचित है । यदि राजा ऐसा करता है तो यह न्याय राजा को शोभा नहीं देता।'
राज्य का अस्तित्व शक्तिशाली सैनिकों, कुशल सेनानायकों और वीर एवं पराक्रमी राजाओं पर निर्भर करता है। शूरवीरों से सम्बद्ध नीति कथन भी राजनीति की परिधि में रखे जा सकते हैं। आलोच्य कवियों ने शूरवीर विषयक नीति की कुछ बातें कही हैं, देखिये :
१. नेमिचन्द्रिका, पृष्ठ ४ । २. पार्श्वपुराण, पद्य ६६, पृष्ठ ३४ । . निशि भोजन कथा, पद्य ४८।
शील कथा, पृष्ठ ६५। ५. पार्श्वपुराण, पद्य ८८, पृष्ठ १२ ।