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नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व
मन
___ मन को आधाररूप में ग्रहण कर विविध प्रकार की नीतियों का उल्लेख मिलता है :
मन राजा मन चक्रि है, मन सबको सिरदार । मन सों बड़ो न दूसरो, देख्यो इहि संसार ॥
अब मन का अशुभ पक्ष भी देखिए :
मन राजा कहिये बड़ो रे, इंद्रिन को सिरदार । आठ पहर प्रेरत रहै उपजै कई विकार ।। मन इंद्रि संगति किये रे, जीव परै जग जोय । विषयन की इच्छा बढ़े रे, कैसे शिवपुर होय ॥
शरीर
___ मन अदृश्य है और शरीर दृश्य । शरीर एक ऐसा निराला खेत है जिसमें बोया कुछ जाता है किन्तु उपजता कुछ है । वह पौद्गलिक है, अनन्तानन्त कष्टों का घर है और नश्वर है। वह निस्सार, अस्थिर, घृणित और अपवित्र है; समुद्र की विपुल जलराशि से भी उसे पवित्र नहीं बनाया जा सकता:
देह अपावन अथिर घिनावन,
या में सार न कोई। सागर के जल सों सुचि कीजे,
तो भी सुचि नहि होई ॥
" पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ११२, पृष्ठ २४६ । २. वही, पद्य १३२.१३३, पृष्ठ २५० । ३. शतअष्टोत्तरी, पद्य १०३, पृष्ठ ३१ । ५. पार्श्वपुराण, पद्य ८६, पृष्ठ ३५ ।