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मोह
मोह-दशा मनुष्य को प्रतिपल व्यथित किये रहती है। मोहोदय के कारण ही अज्ञानी जीव भोगों को प्रिय और हितकर मानता है :
जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
मोह पुरुष का शक्तिशाली शत्रु है । मोहलिप्त पुरुष के लिए घर कारागृह है, बनिता बेड़ी और परिजन चौकीदार ।
तृष्णा
मोह उदय यह जीव अग्यानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतुरो, सो सब कंचन माने ॥
मोह की भांति तृष्णा भी कष्टकर है। तृष्णा के विशाल परिवेश में समस्त संसार आवृत है । वह ऐसी प्रचण्ड ज्वाला है, जिसका ईंधन कभी समाप्त नहीं होता और जिसे सागर के जल से नहीं बुझाया जा सकता । जैसे दाभ-अनी के जल-बिन्दुओं से मनुष्य की तृष्णा शान्त नहीं होती, वैसे ही सम्पूर्ण भोग्य पदार्थ तृष्णा की तृप्ति के लिए अपर्याप्त हैं । जो भोगों से तृष्णा को शान्त करने का विचार करता है, वह अग्नि पर घी डालता है । '
भोग भोगने में मधुर और परिणाम में तीक्ष्ण एवं कटु होते हैं । ज्योंज्यों भोग बढ़ते जाते हैं, त्यों-त्यों तृष्णा भी बढ़ती जाती है :
१.
1.
पार्श्वपुराण, पद्य ६४, पृष्ठ २८ ।
२.
• मोह महारिपुबैर विचारा, जग जिय संकट डाले । घरकारागृह वनिता बेड़ी, परिजन जन रखवाले ॥ - वही, पद्य ६७, पृष्ठ ३४ ।
सीता चरित, पद्य २०३८, पृष्ठ ११५ । ४. पार्श्वपुराण, पृष्ठ ११५ । वही, पद्य ६३, पृष्ठ ३४।
ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मनवांछित जन पावे । तिसना नागिन ज्यों ज्यों डंके, लहर जहर की आवे ||