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नैतिक, धार्मिक एवं दार्शनिक परिपार्श्व
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कहना चाहिए कि 'जो स्व-हित- चिन्तना नीति क्षेत्र में व्यष्टि - बिन्दु से प्रारम्भ होती है, वह धर्म क्षेत्र में समष्टि की व्याप्ति बन जाती है । इसमें संदेह नहीं कि नीति की स्वीयता धर्म में भी मिली रहती है, पर धर्म में उसकी विशालता व्यापकत्व प्राप्त कर लेती है । 'वसुधैव कुटुम्बकम्' में उसकी अभिव्यक्ति है । नैतिक स्वीयता का निम्नतम स्तर व्यक्ति है । व्यक्तित्व की विकसित दशा में 'स्वीयता' का क्षेत्र भी फैल जाता 1 व्यक्तित्व-संकोच के ह्रास के साथ-साथ 'स्वीयता' में धर्म विकसित होता चला जाता है । 'स्व' विराट् बन जाता है और पूर्णांग धर्म वसुधा के परिवार में निवास करने लगता है । अतः धर्म के वृत्त का केन्द्र व्यक्ति और परिधि समष्टि है, अथवा यों कहिये कि आचरण के दुधारे के दो पहलू हैंएक व्यावहारिक है, जिसे नीति कहते हैं और दूसरा पारमार्थिक, जिसका नाम धर्म है ।'
'धर्म और नीति का संश्लेषण इतना घनिष्ठ है कि दोनों के मध्य में कोई अन्तर रेखा नहीं खिंच सकती । इसी कारण साहित्य में धर्म और नीति का मिलाजुला रूप देखने में आता है" नीति भूत के खरे अनुभवों का वह सार एवं दाय भाग है, जो वर्तमान और भावी जीवन का पथ प्रशस्त करती है । वह व्यक्ति और समाज की सफलता की भूमिका है ।
नैतिक मूल्यों की उपलब्धि की दृष्टि से पार्श्वपुराण', 'बंकचोर की कथा', 'शतअष्टोत्तरी', 'चेतन कर्म चरित्र', 'यशोधर चरित', 'नेमीश्वर रास', 'सीता चरित', 'शीलकथा', 'पंचेन्द्रिय संवाद' आदि उल्लेखनीय रचनाएँ हैं । इनमें आकलित नीतियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है, जिन्हें ( १ ) सामान्य नीति और ( २ ) राज्यनीति के नाम से अभिहित किया गया है ।
सामान्य नीति
इस शीर्षक के अन्तर्गत मनुष्य के सामान्य जीवन से सम्बन्धित नीतियों
डॉ० सरनामसिंह शर्मा 'अरुण' : हिन्दी साहित्य पर संस्कृत साहित्य का प्रभाव, पृष्ठ २१२ ।
१. वही, पृष्ठ २१२ ।
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