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जैन कवियों के ब्रजभाषा - प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
यहाँ सुबुद्धि रानी चेतन राजा को विनम्रतापूर्वक ज्ञान और अध्यात्म के प्रदेश में आने का निवेदन कर रही है । वह प्रेम-संबलित वाणी का प्रयोग कर सांसारिक भोगों में भटकते हुए अपने प्रियतम को सुपथ पर ले आना चाहती है | प्रबोधनात्मक शैली का यह उत्तम उदाहरण है ।
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व्यंग्य या भर्त्सना शैली
यह प्रबोधन-शैली से भिन्न और विपरीत शैली है । 'धर्म परीक्षा', 'पंचेन्द्रिय संवाद', 'यशोधर चरित', 'सीता चरित', 'भद्रबाहु चरित', 'चेतनकर्म चरित्र,' 'शत -अष्टोत्तरी' आदि काव्यों में इसका अनेक स्थलों पर व्यवहार हुआ है । उदाहरण द्रष्टव्य है :
चौरासी लख स्वांग में, को नाचत हो नाच |
वा दिन पौरुष कित गया, मोहि कहो तुम साँच ॥ यह व्यंग्य शैली का नमूना है । इस शैली का आश्रय लेकर कवि ने अभीष्ट भाव को अभिव्यक्त कर दिया है । कुछ काव्यों में कहीं-कहीं व्यंग्य बहुत करारा और तीखा और कहीं आक्रामक हो गया है ।' इतना ही नहीं, कहीं यह भर्त्सना की श्र ेणी तक पहुँच गया है । सारांश यह है कि
अन्तहि कित रहे, सो तुम करहु विचार ।
अब तुम में कूबत भई, लरिबे को तैयार ॥
१. चेतन कर्म चरित्र, पद्य ११३-१४, पृष्ठ ६६ ।
(क) आयु संयोग बचे कहूं जीवत लोगनि की तब दृष्टि लसे हो । आजु भये तुम जीवन के बस भूलि गये किततें निकसे हो ॥ -शत अष्टोत्तरी, पद्य ३२, पृष्ठ १५ ।
२.
४.
(ख) अरी पापिनी रंडिका ऐसो बोल न बोल ।
-धर्म परीक्षा, पद्य ८६५, पृष्ठ ४५ । सीता चरित, पद्य १८५४ ५७, पृष्ठ १०४ । आँख कहै रे कान तू, इस्यो करें अहंकार । मैलनि कर धो रहै, लार्ज नहीं लगार ॥ भली बुरी सुनती रहे, तोरे तुरत सनेह । तो सम दुष्ट न दूसरो, धारी ऐसी देह ॥
-पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ४६-४७, पृष्ठ २४२-४३ ।