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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन कौन कापुरुष कहिये मर्म । जो सठ साधन जाने धर्म ।
धन्य कौन नर इस संसार । जोबन समै धरै व्रत सार ॥ यहाँ इस शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक-एक पक्ति में ही प्रश्न और उत्तर दोनों पूर्ण हो गये हैं। प्रश्नोत्तर की यह विधि चमत्कारमयी न होकर प्रसादमयी है। कहीं संवादों में विचारोत्तेजकता और ओजगुणसम्पन्नता झलकती है, यथा :
रावण बोल्यौ मुष थकी, सुनि हो लछिमन नीच । मैं लड्यौ विभीषण थे सही, तू क्यों आयौ बीच ॥
और वीर लक्ष्मण भी इसका कैसा मुह तोड़ उत्तर देते हैं :
नीच पुरिष वह जानिये, लड़े न आय समान । सो कुमती मति हीन नर, कर आप पद हान ॥३
कहीं-कहीं इस शैली के अन्तर्गत संवाद-कथन प्रायः विस्तृत कलेवर वाले हैं; ऐसे स्थलों पर इस शैली का कलात्मक सौन्दर्य ह्रासोन्मुखी है।'
निषेध-शैली
___अधिकांश कृतियों में इस शैली का विधान मिलता है। स्वीकारात्मक जीवन-मूल्य जीवन में ढालने के लिए होते हैं और निषेधात्मक जीवन-मूल्य परित्याग करने के लिए। इस शैली के एक-दो चित्र द्रष्टव्य हैं :
छती वस्तु सों रति नहिं करै । अर अछती की चाह न धरै।
१. पार्श्वपुराण, पद्य १५६-६०, पृष्ठ ६२ । २. सीता चरित, पद्य १४८७, पृष्ठ ८२ । ३. . वही, पद्य १४८८, पृष्ठ ६२ । ४. पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ४६-५३, पृष्ठ २४२-२४३ । ५. जीवंधर चरित (दौलतराम), पद्य ५७, पृष्ठ ४ ।