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भाषा-शैली
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सरल शैली है। इसमें चमत्कार और आकर्षण की खोज करना व्यर्थ है।' उपदेश-कथन जहाँ लम्बे हैं, वहाँ यह शैली नीरस हो उठी है । इस शैली का अनुशीलन नीति-वाक्यों में भी किया जा सकता है और धार्मिक उपदेशों में भी; किन्तु अधिकांश स्थलों पर दोनों ही घुल-मिल गये हैं, जैसे :
जिम कोई करि कपटी मित । चाहै जड़मति भयौ नचिंत ॥ ज्यों हिंसक मत धारि खल होइ । चाहे सुगति सु कैसे होइ॥ तैसें मंत्री अधम अयान । लियो राज तजि धर्म विधान ॥ स्वामि द्रोह सो और न पाप । पापी लहै नरक संताप ।।
दार्शनिक तत्त्वों के निरूपण में भी प्रायः यही शैली प्रमुख रही है, किन्तु दर्शन की भूमिका में कहीं-कहीं दुरूह हो गयी है।
संवाद या प्रश्नोत्तरी शैली
यों तो कतिपय स्थलों पर इस शैली का व्यवहार प्रायः सभी प्रबन्धकाव्यों में हुआ है; परन्तु 'नेमि-राजुल बारहमास संवाद', 'चेतन कर्म चरित्र', 'सीता चरित', 'राजुल पच्चीसी', 'नेमिचन्द्रिका' (आसकरण), 'पंचेन्द्रियसंवाद' काव्य इस दृष्टि से विशेष कहे जा सकते हैं। इनकी कथावस्तु का विकास भी इसी शैली में ही अधिक हुआ दिखायी देता है। 'पार्श्वपुराण' में भी कुछ स्थलों पर इस शैली का सुन्दर प्रयोग हुआ है, जैसे :
माता मूरख कौन महंत । विषयी जीव जगत जावंत ॥ कौन सत्पुरुष नरभव धार । जो साधं पुरुषारथ चार ॥
१. आयुहीन नर कों जथा, औषधि लग न लेस । त्यों ही रागी पुरुष प्रति, वृथा धरम उपदेस ॥
-पार्श्वपुराण, पद्य ११४, पृष्ठ १४ । ३. जीवंधर चरित (दौलतराम), पद्य ४४-४५, पृष्ठ ३-४ । ३. भद्रबाहु चरित्र, पद्य ९७ से ११६, पृष्ठ ५०-५२ ।