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________________ जैन कवियों के ब्रजभाषा - प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन यहाँ सुबुद्धि रानी चेतन राजा को विनम्रतापूर्वक ज्ञान और अध्यात्म के प्रदेश में आने का निवेदन कर रही है । वह प्रेम-संबलित वाणी का प्रयोग कर सांसारिक भोगों में भटकते हुए अपने प्रियतम को सुपथ पर ले आना चाहती है | प्रबोधनात्मक शैली का यह उत्तम उदाहरण है । ३२२ व्यंग्य या भर्त्सना शैली यह प्रबोधन-शैली से भिन्न और विपरीत शैली है । 'धर्म परीक्षा', 'पंचेन्द्रिय संवाद', 'यशोधर चरित', 'सीता चरित', 'भद्रबाहु चरित', 'चेतनकर्म चरित्र,' 'शत -अष्टोत्तरी' आदि काव्यों में इसका अनेक स्थलों पर व्यवहार हुआ है । उदाहरण द्रष्टव्य है : चौरासी लख स्वांग में, को नाचत हो नाच | वा दिन पौरुष कित गया, मोहि कहो तुम साँच ॥ यह व्यंग्य शैली का नमूना है । इस शैली का आश्रय लेकर कवि ने अभीष्ट भाव को अभिव्यक्त कर दिया है । कुछ काव्यों में कहीं-कहीं व्यंग्य बहुत करारा और तीखा और कहीं आक्रामक हो गया है ।' इतना ही नहीं, कहीं यह भर्त्सना की श्र ेणी तक पहुँच गया है । सारांश यह है कि अन्तहि कित रहे, सो तुम करहु विचार । अब तुम में कूबत भई, लरिबे को तैयार ॥ १. चेतन कर्म चरित्र, पद्य ११३-१४, पृष्ठ ६६ । (क) आयु संयोग बचे कहूं जीवत लोगनि की तब दृष्टि लसे हो । आजु भये तुम जीवन के बस भूलि गये किततें निकसे हो ॥ -शत अष्टोत्तरी, पद्य ३२, पृष्ठ १५ । २. ४. (ख) अरी पापिनी रंडिका ऐसो बोल न बोल । -धर्म परीक्षा, पद्य ८६५, पृष्ठ ४५ । सीता चरित, पद्य १८५४ ५७, पृष्ठ १०४ । आँख कहै रे कान तू, इस्यो करें अहंकार । मैलनि कर धो रहै, लार्ज नहीं लगार ॥ भली बुरी सुनती रहे, तोरे तुरत सनेह । तो सम दुष्ट न दूसरो, धारी ऐसी देह ॥ -पंचेन्द्रिय संवाद, पद्य ४६-४७, पृष्ठ २४२-४३ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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