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भाषा-शैली
३१३ हने की', 'विधारे की', 'बारहमासे की', 'अनबोलने की', 'जोगीरास की' आदि-आदि ढालों का व्यवहार हुआ है । इनमें से अधिकांश ढालें सटेक गीत-शैली पर रची गयी हैं और संगीतविषयक रागों से सम्बद्ध हैं। गीति-तत्त्व उनमें आदि से अन्त तक अनुस्यूत है और जैसे लोकगीतों के अनेक प्रकार हैं, अनेक अवसरों के अनेकानेक गीत हैं, वैसे ही ढालों के भी अनेक प्रकार हैं, उनमें अनेक राग हैं और उनमें सभी भाव-रसों को अभिव्यक्त करने की क्षमता है।
सवैया
उपर्युक्त छन्दों के अलावा 'सवैया' और 'कवित्त' को लेना चाहिए। सवैया छन्द अपने नाद-सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है और आलोच्य युग का यह प्रिय छन्द है । विवेचनीय कृतियों में इसका सबसे अधिक उपयोग 'शतअष्टोत्तरी' काव्य में हुआ है । इसमें सवैया के कई रूप उभरे हैं ।२ 'धर्मपरीक्षा', 'वरांग चरित', 'जिनदत्त चरित', 'शीलकथा', 'जीवंधर चरित' आदि प्रबन्धकाव्यों में भी इस छन्द की योजना है। 'शीलकथा' में एक ही स्थल
१. एजी नेमि पिया अनबोलने, अनबोले कछु न बसाय हो । नेमीश्वर अनबोलने, अनबोले कछु न बसाय हो ।
नेमिकुमार अनबोलने..............।
-नेमिचन्द्रिका (आसअरण), पृष्ठ २६ । २. (क) देख कहा भूलि पर्यो देख कहा भूलि पर्यो, देख भूलि कहा कर्यो हर्यो सुख सब ही।
-शतअष्टोत्तरी, पद्य ३१, पृष्ठ १५ । (ख) केवल रूप विराजत चेतन ताहि विलोकि अरे मतवारे ।
-वही, पद्य ५०, पृष्ठ १६ । भगवंत भजो सु तजो परमाद, समाधि के संग में रंग रहो।
-वही, पद्य १०२, पृष्ठ ३१ ।