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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
उनसे नीरसता को प्रश्रय मिलता हो या अनावश्यक प्रसंग - विस्तार को । वे समझते हैं कि इसी में कवि-कौशल की गु ंजाइश है । पर असम्बद्ध वस्तुओं की चर्चा कर वस्तुपरिगणन शैली की लीक पीटना या ऐसी ही धुन सवार हो जाना कवि-साफल्य की कसौटी नहीं है । इससे तो अर्थ की अपेक्षा उलटा अनर्थ ही होता है, प्रबन्ध की रस धारा में व्याघात उत्पन्न होता है और भावक को ऊबने और खीझने का अवसर मिलता है | अतः ऐसे अवसरों पर प्रबन्ध कवि को अपनी सीमाएँ निर्धारित कर लेनी चाहिएं, भले ही उसे नट- कुंडली की भाँति कितना ही सिमट कर चलना पड़े ।
दृश्यों की चित्रमयी और कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए दृश्यों के अनुरूप सहज छन्दों और सहज भाषा का प्रयोग अपेक्षित है । सहज भाषा ही चित्र भाषा हो सकती है। चित्रों की मोहकता के लिए चित्रभाषा होनी चाहिए |
सारांश यह है कि सफल दृश्य-विधान के लिए 'कविता में कही बात चित्ररूप में हमारे सामने आनी चाहिए ।" तभी पाठक का हृदय उसमें पूरी तरह रम सकता है और तन्मयता प्राप्त कर सकता है ।
आलोच्य प्रबन्धकाव्य और सम्बन्ध-निर्वाह
यह नहीं कहा जा सकता कि सम्बन्ध निर्वाह की दृष्टि से सभी समीक्ष्य काव्य सफल हैं । सफल प्रबन्धकाव्यों में कथा का बंधान और निर्वाह उचित रीति से हुआ दिखायी देता है, यथा - 'नेमिचन्द्रिका', 'शीलकथा', 'श्रेणिक चरित' आदि । कुछ प्रबन्धों में कथा की समुचित गति में अवरोध की प्रतीति होती है और उनमें कहीं-कहीं या तो कथानक में उलझन का आभास मिलता है या वह टूट गया है, यथा-चरितात्मक पद्धति का 'यशोधर चरित' काव्य । कुछ काव्य ऐसे हैं जिनकी कथा की रेखाओंमात्र से सम्बन्ध की कल्पना करनी पड़ती है, यथा -- शतअष्टोत्तरी । कहने का तात्पर्य यह है कि सम्बन्ध
१. पं० रामचन्द्र शुक्ल : चिन्तामणि ( भाग - १ ), पृष्ठ १७५ ।