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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
व्यंजना
काव्य में मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ से इतर एक विशिष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति करने वाली व्यापार-शक्ति व्यंजना है । व्यंजना की स्थिति वस्तु, रस और अलंकार तीनों के अन्तर्गत हो सकती है ।
विवेच्य कृतियों में व्यंजना शक्ति के अनेक उद्धरण उपलब्ध हो जाते हैं। पहला उदाहरण द्रष्टव्य है :
लाई हों लालन बाल अमोलक, देखहु तो तुम कैसी बनी हैं । ऐसी कहुँ तिहुँ लोक में सुन्दर, और न नारि अनेक घनी हैं । '
यह सुबुद्धि का चेतन से कथन है, जिसमें 'लाई हों लालन बाल अमोलोक' में वस्तु, भाव और अलंकार तीनों की ध्वनि है । 'लालन' के सामने तीनों लोकों से सुन्दरियाँ लाकर खड़ी नहीं की गयी हैं, अपितु अनात्मभाव रूप सुन्दरियों के पीछे भटकने वाले 'लालन' को आत्म-भावों को अपनाने का संदेश है, जिसे व्यंजना के द्वारा ही पहचाना जा सकता है | व्यंजना शक्तिको द्योतित करने वाली कुछ पंक्तियाँ और लीजिए :
तू अति वृद्ध ज्ञान न तोकों । किती दूर पुर पूछत मोकों । तरवर सरवर बाग बिसाला | बहुरि देखिये खेलतं बाला ।'
यह वृद्ध साधु द्वारा खेलते हुए छोटे से बालक से 'नगर कितनी दूर है ?" पूछने का प्रसंग है । बालक ने प्रश्न का जो उत्तर दिया है उसमें व्यंजना- कौशल समाया हुआ है। वृक्षों, सरोवरों, विशाल बागों और फिर खेलते हुए बालकों से यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि नगर बिलकुल पास है । बालक नहीं कहता कि नगर पास है, परन्तु ध्वनि द्वारा यह स्पष्ट है । इसमें बालक की कुशाग्र बुद्धि के परिचय की भी व्यंजना है । प्रस्तुत शक्ति के प्रसंग में ही एक उदाहरण और दिया जाता है :
१. शत अष्टोत्तरी, पद्य ८५, पृष्ठ २७ ।
२. जीवंधर चरित ( दौलतराम ), पद्य ६०, पृष्ठ ६७ ।