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भाषा-शैली
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यहाँ 'संयमनाथ' के दो अर्थ निकल रहे हैं - एक संयमस्वामी और दूसरा नेमिनाथ, अत: इसमें श्लेष अलंकार है ।
पुनरुक्तिप्रकाश
भाव को अधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए जहां एक शब्द की एक से अधिक बार आवृत्ति होती है, प्रत्येक बार जहाँ अर्थ अभित्र होता है, वहाँ पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार होता है । हमारे कवियों में इस अलंकार के प्रयोग की अधिक प्रवृत्ति दिखायी देती है । आलोच्य काव्यों में इस अलंकार की अनेक स्थलों पर योजना मिलती है । ऐसा लगता है कि यह अलंकार कवियों के विशेष आकर्षण का केन्द्र रहा है । कतिपय उदाहरण :
(क) पद्म- पद्म वर वरुन लसत जगमग जगमग तन । ' (ख) भव भव अति दुखदाय, मोह समान न शत्रु को ।' (ग) कष्ट कष्ट धन जोरि करि कहे मनोहरदास । ३ (घ) धृग घृग यह संसार महावन भटक और न आयो ।' (ङ) बार बार जिन पग छुवें, धन्य धन्य वे नारि । "
१. जीवंधर चरित (नथमल बिलाला ), पद्य १, पृष्ठ ५२ ।
२. जीवंधर चरित ( दौलतराम ), पद्य १०३, पृष्ठ १०३० ।
४.
(च) घर घर साजि सब त्रिया, कर सोला सिंगार । (छ) घर घर कामिनि गावैं गीत । घर घर होय निरत संगीत ।
३. धर्म परीक्षा, पद्य २८, पृष्ठ ४६ ।
वर्द्धमान पुराण, पद्य ११३, पृष्ठ ५३ ।
नेमिचन्द्रिका (आसकरण ), पृष्ठ १० ।
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६. शील कथा, पृष्ठ ७२ ।
पार्श्वपुराण, पद्य १०६, पृष्ठ १०४ ।