________________
भाषा-शैली
३०३ इसमें दान शील की चन्द्र-सूर्य से उपमा दी गयी है । दान की ख्याति चन्द्रमा के समान है और शील की ख्याति सूर्य के समान ।
अब रूपक अलंकार देखिये।
रूपक
जहाँ उपमेय और उपमान में अभेद की प्रतीति हो, वहां रूपक अलंकार होता है । समालोच्य कृतियों में अर्थालंकारों में उपमा के समान ही रूपक का बहुल प्रयोग उपलब्ध होता है। उनमें ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं, जहां रूपक का आश्रय लिया गया है। उदाहरण के लिए 'शत अष्टोत्तरी' (भैया भगवतीदास) से उद्धृत यह रूपक बहुत सुन्दर बन पड़ा है, जिसमें चेतन रूपी राजा को काया रूपी नगरी में राज्य करते हुए और मायारानी में मग्न रहते हुए सिद्ध किया है । उसके पास मोह रूपी फौजदार, क्रोध रूपी कोतवाल तथा लोभ रूपी वजीर है । जैसे :
काया सी जु नगरी में चिनानन्द राज कर, माया सी जु रानी 4 मगन बहु भयो है । मोह सौ है फौजदार क्रोध सो है कोतवार,
लोभ सो वजीर जहाँ लूटिवे को रह्यौ है ।' वस्तुतः भैया भगवतीदास की प्रवृत्ति रूपक-रचना की ओर अधिक रही है । रूपकों के माध्यम से उन्हें अपने अमीष्ट अभिप्राय को प्रकट करना अधिक भाया है। उन्होंने 'सूआ बत्तीसी' में चेतन को तोता का रूप देकर इस संसार रूपी वन में भटकती हुई अवस्था में चित्रित किया है :
यह संसार कर्म वन रूप । तामहि चेतन सुआ अनूप । पढ़त रहै गुरु वचन विसाल । तौहु न अपनी करै संभाल ।। लोभ नलिनि पर बैठे जाय । विषय स्वाद रस लटके आय । पकरिहि दुर्जन दुर्गति परै । तामें दुख बहुत जिय भरै ॥
शतअष्टोत्तरी, पद्य २६, पृष्ठ १४ । २. सूआ बत्तीसी, पद्य २२-२३, पृष्ठ २६६ ।