________________
३०२
जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
शब्दालंकारों के बाद अब अर्थालंकारों पर दृष्टि डालिए।
अर्थालंकार ये अलंकार अर्थ को उत्कर्ष तक पहुंचाने वाले कारणरूप हैं । शब्दालंकार जहाँ विशेषतः भाषा को सजाते हैं, वहाँ अर्थालंकार भाव-सौन्दर्य को द्विगुणित करते हैं । विवेच्य ग्रन्थों में इनका भी स्थान है। सर्वप्रथम उपमा को लीजिए।
उपमा
यह सम्पूर्ण अलंकारों में शिरोभूषण है, क्योंकि यह सादृश्यमूलक अलंकारों में सबसे आगे है और कला की दृष्टि अपने सौन्दर्यबोध के लिए सर्वप्रथम सादृश्य का आश्रय ग्रहण करती है ।
आलोच्य प्रबन्धों में उपमा अलंकार की स्थल-स्थल पर योजना हुई है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं :
वेश्या सम लछमी अति चंचल, याको कौन पत्यारा।' यहां लक्ष्मी (धन-सम्पत्ति) की चंचलता की उपमा वेश्या से दी गयी है जो अपनी चंचल-प्रकृति के लिए प्रसिद्ध है । जैसे, वेश्या विश्वसनीय नहीं है, वैसे ही लक्ष्मी भी।
रंभा के दीपक जहाँ, चन्द्र किरण सम सार । यहाँ महल में जलते हुए मनोहर दीपकों की उपमा रंभा के दीपकों से दी गयी है, जिनकी रश्मियाँ चन्द्रकिरणों के समान उज्ज्वल और स्निग्ध हैं । अन्य उदाहरण :
दानशील गुण सोहैं दोय । चन्द्र सूर्य की पटतर होय ॥
१. पार्श्वपुराण, पद्य ६६, पृष्ठ ३४ । २. यशोधर चरित, पद्य २६२।
वर्द्धमान पुराण, पद्य ७४, पृष्ठ २३ ।