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भाषा-शैली
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यापे पूरण इच्छ, वृच्छ को भेद न जान्यो। रहे विषय लपटाय, मुग्ध मति भरम भुलान्यो। फल महिं निकसे तूल, स्वाद पुन कछू न हूवा । यहै जगत की रीति, देखि सेमर सम सूवा ।'
यहाँ कवि को अभिप्रेत है-मानवात्मा को निस्सार संसार की स्थिति का ज्ञान कराना, किन्तु अभीष्ट भाव तोते को सम्बोधित करके कहा गया है।
अतिशयोक्ति
अतिरंजनापूर्ण चित्रण में अतिशयोक्ति अलंकार होता है । हमारे काव्यों में कहीं-कहीं इसके उदाहरण मिल जाते हैं, जैसे :
जोई जाय धनुष के पास । जले सरीर रहे नहीं सांस ॥२
यहाँ धनुष की प्रचंडता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है । इसी प्रकार अधोलिखित अवतरण में भी शूरवीर के शौर्य का वर्णन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है, जैसे:
छोड़त भयो प्रचंड सरन को घोर तें।
छाय दियो आकास भुजन के जोर तें ॥' इसी अलंकार का एक और उदाहरण लीजिये :
विभीषण रावण भिड़े, पड़े वाण बहु भेद । तजें वाण दोन्यू तहां, वाण वाण को छेद ॥
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१. शतअष्टोत्तरी, पद्य ७४, पृष्ठ २५ । २. सीता चरित, पद्य २८१, पृष्ठ १६ । ३. जिनदत्त चरित (बख्तावरमल), पद्य ११, पृष्ठ ५१ । ४. सीता चरित, पद्य १४८३, पृष्ठ ८२ ।