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________________ भाषा-शैली ३०७ यापे पूरण इच्छ, वृच्छ को भेद न जान्यो। रहे विषय लपटाय, मुग्ध मति भरम भुलान्यो। फल महिं निकसे तूल, स्वाद पुन कछू न हूवा । यहै जगत की रीति, देखि सेमर सम सूवा ।' यहाँ कवि को अभिप्रेत है-मानवात्मा को निस्सार संसार की स्थिति का ज्ञान कराना, किन्तु अभीष्ट भाव तोते को सम्बोधित करके कहा गया है। अतिशयोक्ति अतिरंजनापूर्ण चित्रण में अतिशयोक्ति अलंकार होता है । हमारे काव्यों में कहीं-कहीं इसके उदाहरण मिल जाते हैं, जैसे : जोई जाय धनुष के पास । जले सरीर रहे नहीं सांस ॥२ यहाँ धनुष की प्रचंडता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है । इसी प्रकार अधोलिखित अवतरण में भी शूरवीर के शौर्य का वर्णन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है, जैसे: छोड़त भयो प्रचंड सरन को घोर तें। छाय दियो आकास भुजन के जोर तें ॥' इसी अलंकार का एक और उदाहरण लीजिये : विभीषण रावण भिड़े, पड़े वाण बहु भेद । तजें वाण दोन्यू तहां, वाण वाण को छेद ॥ - १. शतअष्टोत्तरी, पद्य ७४, पृष्ठ २५ । २. सीता चरित, पद्य २८१, पृष्ठ १६ । ३. जिनदत्त चरित (बख्तावरमल), पद्य ११, पृष्ठ ५१ । ४. सीता चरित, पद्य १४८३, पृष्ठ ८२ ।
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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