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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
विमलमती के चंचल हग जिनदत्त के रूप-सौन्दर्य का पान कर रहे हैं। रूप की प्यास उन्हें जिनदत्त की ओर लगातार देखने के लिए विवश करती है, परन्तु लाज आकर उन्हें धरती की ओर झुकाती है । विमलमती और जिनदत्त, दोनों के मध्य ऐसा प्रतीत होता है मानो नील कमलों की सृष्टि हो गयी है । यहाँ उत्प्रेक्षा के माध्यम से कवि ने अपने अभीप्सित भाव को बड़ी सुन्दरता से प्रदर्शित किया है ।
युद्ध-वर्णन के प्रसंग में भी उत्प्रेक्षाओं का सुन्दर प्रयोग हुआ है, जैसे :
छूटत सर दुहु ओर, गगन छायो सही। मानो बरषत मेघ, अवनि ऊपर मही ॥'
इसी प्रकार रूप-चित्रण में यह उत्प्रेक्षा बड़ी मार्मिक बन पड़ी है :
सुभ बैनी स्याम तरल अलकें । जुग मानों नागिनि सी लटकें ॥
संक्षेप में कहा जा सकता है कि विवेच्य काव्यों में उत्प्रेक्षाओं का अभाव नहीं है । उनमें से कुछ परम्परानुकूल हैं और कुछ में नव्यता की झलक है।
इसके अनन्तर अन्योक्ति की भूमि पर आइये ।
अन्योक्ति
हमारे अधिकांश काव्य इस अलंकार की योजना से प्रायः अभावग्रस्त हैं, फिर भी कहीं-कहीं इसका प्रयोग अच्छा हुआ है; यथा 'शतअष्टोत्तरी' में । उदाहरणार्थ :
सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ । आये धोखे आम के, यापे पूरण इच्छ ॥
१. वर्द्धमान पुराण, पद्य ११२, पृष्ठ २६ । २. जीवंधर चरित (नथमल बिलाला), पृष्ठ ३६, पद्य ६१ ।