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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
ऊपर 'प्रबन्धकाव्यों में अलंकार' विषयक संक्षिप्त जानकारी दी गयी है । उनमें इनके अतिरिक्त और भी अलंकारों की योजना है। यह ठीक है कि उनमें अलंकारों का घटाटोप उपलब्ध नहीं होता, किन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि उनमें रमणीयता के संचार हेतु, भाषा की कान्ति और भाव के उत्कर्ष में योग देने के लिए अनेक स्थलों पर अलंकारों की योजना हुई है।
छन्द-योजना
वस्तुतः छन्द कविता का संगीत है, जो गति, यति एवं लय से मर्यादित होकर काव्यानुभूति को अधिक प्रभावशाली एवं हृदयस्पर्शी बनाता है। प्रबन्धकाव्यों में शैली के रूप-निर्माण में छन्दों का विशेष महत्त्व है।
आलोच्यकाल कला-वैभव का काल था। उसमें काव्य के अन्तःपक्ष की अपेक्षा बाह्य पक्ष का उत्कर्ष अधिक दिखायी देता है । अतः यह स्वाभाविक ही था कि विवेच्य प्रबन्धों के अन्तर्गत कला की प्रतिष्ठा में, भावाभिव्यक्ति की अनेकरूपता में अनेक छन्दों का प्रयोग होता । हमारे काव्यों में प्रयुक्त छन्द वणिक भी हैं और मात्रिक भी; प्राचीन भी हैं और नवीन भी । प्रबन्धों में 'चाल' छन्द के अलावा भिन्न-भिन्न राग-रागिनियों पर आधृत 'ढाल' एवं 'देशियों' का प्रयोग तो आलोच्ययुगीन अन्य कवियों से इतर विशेषता का परिचायक है और अनेक प्रणेताओं की लोकरुचि तथा संगीतप्रियता का प्रमाण है।
छन्द-विधान के सम्बन्ध में आलोच्य कवियों का स्वतन्त्र दृष्टिकोण रहा है । संस्कृत के आचार्यों ने एक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग और सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन का जो निर्देश किया था, उसका इन कवियों ने कठोरता से पालन नहीं किया । इन्होंने सर्गबद्ध काव्यों को एक ही छन्द में नहीं रचा, भले ही वे महाकाव्य हों, एकार्थकाव्य हों या खण्डकाव्य । एक सर्ग में अनेक छन्दों की योजना की प्रवृत्ति इन कवियों में दिखायी देती है । सर्ग के आदि, मध्य और अन्त के किसी भी स्थल पर आवश्यकतानुसार छन्द बदल दिया गया है । सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन की परम्परा का प्रायः