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भाषा-शैली
२६६ यहाँ ध्वनियुक्त वर्णों की आवृत्ति स्वाभाविक है । इस विधि से कवि भाव की सुष्ठ व्यंजना में सफल हुआ है।
इस अलंकार का प्रयोग कहीं-कहीं कारीगरी के लिए भी हुआ है, किन्तु उस कारीगरी से अर्थ या काव्यत्व गौण नहीं हो गया है, यथा :
मानत न मेरी कह यौ, मान बहुतेरौ कह यो,
___मानत न तेरो गयो, कहो कहा कहिये । कौन रीझ रीझ रह यो, कौन बूझ बूझ रह यो,
__ ऐसी बातें तुमें यासों कहा कही चहिये ।।' कुछ काव्यों में कतिपय स्थलों पर अनुप्रास अलंकार बलपूर्वक लाया गया है । वहाँ एक वर्ण को फिर-फिर कर लाने की धुन है । ऐसे स्थलों पर पाठक अनुप्रास के चमत्कार पर रीझ सकता है, किन्तु भावविभोर होकर अपने हृदय की वृत्तियों को उसमें लीन नहीं कर सकता, जैसा कि इस उद्धरण से स्पष्ट है:
केला करपट कटहल कर । कैथ करोंदा कोंच कनर ।। किरमाला कंकोल कल्हार । कमरख कंज कदम कचनार ।। खिरनी खारक पिंडखजूर । खैर खिरहटी खैजड़ मूर ॥ अर्जुन अमली आम अनार । अगर अंजीर असोक अपार ॥ अरनी ओंगा अरलू मने । अंबर अंड अरीठा घने । पाकर पीपर पूग प्रियंग । पीलू पाटल पाढ़ पतंग ॥ कहना चाहिए कि विवेच्य कृतियों में अनुप्रास का प्रयोग भरपूर हुआ है । अधिकांश कृतियों के काव्यात्मक सौन्दर्य में वह साधक है और कुछ में कहीं बाधक भी। अब यमक लीजिए।
यमक
यह शब्दाश्रित अलंकार है । अनुप्रास की भांति इसकी योजना अधिक
१. शत अष्टोत्तरी, पद्य १७, पृष्ठ ११ ।
पार्श्वपुराण, पद्य ३७-४०, पृष्ठ ७९-८० ।