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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
अधर कपोल लाल सोभित मराल चाल,
अति ही रसाल बाल बोलत सुहावनी । नित ही सुरंगी अरधंगी भावने की प्यारी,
लोचन कुरंगी सम प्यारे मन भावनी ॥
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जाति छिपावं डोम चंडाल । जाति छिपावै धूरत बाल । जाति छिपा जाति अलाम । जाति छिपावै दुष्ट गुलाम ॥
इसी प्रकार 'शत अष्टोत्तरी' की भाषा कहीं कला से सम्पुटित है, कहीं वह सीधे और सरल रूप में भाव को प्रभावशील बनाने में सक्षम है, यथा :
चेतहु रे चिदानंद, इहाँ बने दोऊ फंद,
कामिनी कनक छंद, ऐन मैन कासी है। जिहिं को तू देख भूल्यो, विषय सुख मान फूल्यो, । - मोह की दशा में झुल्यो, ऐन मैन कासी है। xxx वे दिन क्यों न विचारत चेतन,
मात को कूख में आय बसे हो। ऊरध पाँव लगे निशि वासर,
रंच उसासनि को तरसे हो॥
कहने का तात्पर्य यह है कि अधिकांश प्रबन्धों में भाव-रस, प्रसंग और परिस्थिति के अनुरूप ही भाषा ने अनेक स्तर ग्रहण किये हैं।
१. धर्म परीक्षा, पद्य ४६४, पृष्ठ ३० । २. वही, पद्य ६६५, पृष्ठ ४६ ।।
शत अष्टोत्तरी, पद्य ६२, पृष्ठ २२ । १. वही, पद्य ३२, पृष्ठ १५ । ५. (क) करतो कीड़ा सर विष, रहतौ माता पास ।
चैन पावतो तात पै, धरतौ महा विलास ।।
क्रमशः