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________________ २६६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन अधर कपोल लाल सोभित मराल चाल, अति ही रसाल बाल बोलत सुहावनी । नित ही सुरंगी अरधंगी भावने की प्यारी, लोचन कुरंगी सम प्यारे मन भावनी ॥ X जाति छिपावं डोम चंडाल । जाति छिपावै धूरत बाल । जाति छिपा जाति अलाम । जाति छिपावै दुष्ट गुलाम ॥ इसी प्रकार 'शत अष्टोत्तरी' की भाषा कहीं कला से सम्पुटित है, कहीं वह सीधे और सरल रूप में भाव को प्रभावशील बनाने में सक्षम है, यथा : चेतहु रे चिदानंद, इहाँ बने दोऊ फंद, कामिनी कनक छंद, ऐन मैन कासी है। जिहिं को तू देख भूल्यो, विषय सुख मान फूल्यो, । - मोह की दशा में झुल्यो, ऐन मैन कासी है। xxx वे दिन क्यों न विचारत चेतन, मात को कूख में आय बसे हो। ऊरध पाँव लगे निशि वासर, रंच उसासनि को तरसे हो॥ कहने का तात्पर्य यह है कि अधिकांश प्रबन्धों में भाव-रस, प्रसंग और परिस्थिति के अनुरूप ही भाषा ने अनेक स्तर ग्रहण किये हैं। १. धर्म परीक्षा, पद्य ४६४, पृष्ठ ३० । २. वही, पद्य ६६५, पृष्ठ ४६ ।। शत अष्टोत्तरी, पद्य ६२, पृष्ठ २२ । १. वही, पद्य ३२, पृष्ठ १५ । ५. (क) करतो कीड़ा सर विष, रहतौ माता पास । चैन पावतो तात पै, धरतौ महा विलास ।। क्रमशः
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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