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भाषा-शैली
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उपर्युक्त पंक्तियों में समास रखे गये हैं। उनके प्रयोग से भाषा में थोड़े चमत्कार की प्रतीति होती है और भाषागत सौन्दर्य भी बढ़ा है । ऐसे समास भाषा में सहजरूप से समाविष्ट हो गये हैं; बलपूर्वक उनको लाने का प्रयास नहीं है।
भावानुकूल भाषा
भाव के अनुकूल भाषा बदल जाती है। कदाचित् इसीलिए भाषा कभी एक रूप और एक रस नहीं रहती। प्रत्येक कवि का अपना अलग व्यक्तित्व होता है; भाव की अभिव्यक्ति का उसका अपना अलग ढंग होता है। यही कारण है कि कलाकार की भाषा में भाव के अनुकूल विविधता का स्वतः ही सन्निवेश हो जाता है ।
समालोच्य प्रबन्धकाव्यों की भाषा की सरसता उसके भावानुकूल प्रयोग में है । उदाहरण के लिए, ‘ने मीश्वर रास' में कृष्ण के रूप-वर्णन में भाषा यदि अतीव सुकुमार है, तो युद्ध-वर्णन में वही विस्फोटक बन गयी है :
काना कुंडल जगमग, तन सोहे पीताम्बर चीर तौ। मुकुट विराजे अति भलो, बंसी बजावै स्याम सरीस तो॥
॥रास भणों श्री नेमि कौ ॥
चीतकार रथ अति कर, दन्ती गरजे मेघ समान तो। घोड़ा हीसे अति घणा, चमकै बीज षड़ग समान तो।।
॥रास भणों श्री नेमि को ॥
'धर्म परीक्षा' में भाषा शृंगार रस के चित्रण में विशेष ललित और कोमल है और व्यंग्यपरक स्थलों पर वह आवेशमयी दृष्टिगोचर होती है :
१. नेमीश्वर रास, पद्य १४६, पृष्ठ १० । २. वही, पद्य ८४८, पृष्ठ ५० ।