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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
वेटा थिति करि कोय, वेगि षबरि हम लीजियो । तुम आनन अषि दोय, इक बांई इक दाहिनी ||
इस चित्र की दूसरी पंक्ति पहिली पंक्ति से सम्बन्ध जोड़ती हुई चित्र के अर्थसौष्ठव को सामने रख रही है । बेटा ! तुम मेरे दायें-बायें नयन हो, नयनों की ज्योति हो । तुम लम्बे समय के लिए बन जा रहे हो। तुम्हारे न रहने पर मेरी आकुलता का कोई छोर नहीं होगा । लौटकर शीघ्र खबर लेना, नहीं तो तुम जानते हो कि नेत्रविहीना की क्या दशा होती है ? लक्षणा शक्ति का एक उद्धरण और प्रस्तुत है :
देह कंवर को आंव तरु, पहुप सूर पण रूप । कीरति भई सुगंधता, अद्भुत अतुल अनूप ॥ लोक नेत्र भ्रमरा भये, परें अत्रिप्ता होय ॥ '
यहाँ कुमार की देह को आम का वृक्ष बना दिया है । उसका शौर्य आम्रवृक्ष के पुष्पों से समता रखता है, जिनकी शोभा और सुरभि दूर-दूर के लोगों को लुभाती है । यश में सुरभि नहीं होती किन्तु कुमार का यश आम्र-पुष्पों के संयोग से सुरभियुक्त है और कीर्तिरूपी पवन का सम्बल पाकर दूर तक पहुंचने की क्षमता रखता । इतना ही नहीं, कुमार का सुगंधिमंडित यश लोक-नेत्रों को अतृप्त भ्रमर बनाकर उन्हें अनवरत रूप से मंडराने के लिए विवश करता है । शब्द की लक्षणा शक्ति प्रस्तुत के लिए अप्रस्तुत विधान द्वारा एक अनूठा चित्र खड़ा कर रही है ।
सारांश यह है कि आलोच्य काव्यों में ऐसे अनेक चित्र भरे पड़े हैं जिनमें लक्षणा शक्ति का चमत्कार देखा जा सकता है। साथ ही उनके
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१ सीता चरित, पद्य ४३२, पृष्ठ ४६ ।
जीवंधर चरित ( दौलतराम ), पद्य १४३ - ४४, पृष्ठ १० । (क) हरि हरषित अति ही भयो, गयो राम के पास ।
आवत देण्यौ राम नें,
दिन तें अधिक परकास ॥
- सीता चरित, पद्य ८६६, पृष्ठ ४६ ।
क्रमशः