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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
इसके अतिरिक्त प्रबन्धकाव्यों में आकलित सूक्तियों को भी भुलाया नहीं जा सकता, जो शब्द की अभिधा शक्ति के अन्तर्गत आती हैं। सहृदय, भावक और मर्मज्ञ कवि अपने काव्य में अनेक मामिक सूक्तियों को स्थान देता है। प्रबन्धकाव्यों में सूक्तियों का प्रयोग स्थल-स्थल पर मिल जाता है। उनमें धर्म, पाप, पुण्य, साधु, गुरु, मन, शरीर, पंचेन्द्रिय, संसार, दया, माया, हिंसा, अहिंसा, अभिमान, क्रोध, मोह, लोभ, रोग, द्वेष, शील, कुशील, मित्र, शत्रु, सज्जन, दुर्जन, बाल्य-यौवन-वृद्धावस्था, कर्म, भाग्य, परोपकार, उद्योग, संतोष, क्षमा, चिन्ता, प्रतिशोध, कृतज्ञता, कृतघ्नता, दुःख, सुख, वीर, कायर, राज्य, न्याय, दण्ड आदि से सम्बद्ध सूक्तियों का विनिवेश है
और उनमें अभिधा शक्ति का उत्कर्ष विद्यमान है। थोड़े से उद्धरण दिये जाते हैं :
(क) इह हिरदा की पीर, इहि व्याप सो जानसी ।' (ख) जीव कमाई आपनी, छूट नाहिं घिघांहिं ।' (ग) जो परधन को वांछक होय । तिनके द्रव्य न आवे कोय ॥ (घ) पुण्यवान की संगत सार । कीजै हो भव सुख करतार ॥ (ङ) पाप थकी नाना दुष होय । अघ सम अरु जाणों मत कोय ॥ (च) राज जगत में जानी इसी। चपला चमतकार ह जिसौ ॥ (छ) ज्यों लखि धूम अगनि ह्व जाने । त्यों बालक लखि पुर परवाने ॥ (ज) दुख कटत है पंथ को, जो कोई दूजो होय ।
सीता चरित, पद्य ४३० । वही, पद्य ७२ । धन्यकुमार चरित्र, पृष्ठ ४२ ।
वही, पृष्ठ ३४ । ५ यशोधर चरित, पद्य ५५२ । .. जीवंधर चरित (दौलतराम), पद्य ५२, पृष्ठ ४ । .. वही, पद्य ६२, पृष्ठ ७ । ८. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ २० ।