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२८६ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन दित होते हैं । इसी कारण काव्य के अन्तर्गत अभिधा को प्रथम स्थान प्राप्त है।
विवेच्य ग्रन्थों में अभिधा-शक्ति का सर्वाधिक उपयोग हुआ है । कतिपय प्रबन्धकाव्यों जैसे-'भद्रबाहु चरित्र', 'धन्यकुमार चरित्र', 'नैमि-राजुलबारहमास संवाद', 'शीलकथा', 'लब्धि विधान व्रत कथा', 'नेमिनाथ मंगल', 'बंकचोर की कथा', 'राजुल पच्चीसी', 'नेमिचन्द्रिका', 'पंचेन्द्रिय संवाद', 'फूलमाल पच्चीसी' आदि में अधिकांश स्थल प्रायः अभिधामूलक हैं। शेष रचनाओं में भी अभिधा-शक्ति का उन्मेष स्थल-स्थल पर दिखायी देत है। 'धन्यकुमार चरित्र' से एक उद्धरण लीजिए :
पाए चार यहां उठवाय । आदर सों धोये उमगाय ॥ सुत सों प्रीति अधिक मन मांहि । सो झलकी पाए परि मांहि ॥ यातें घस घस पाए धोय । सकल कालिमा दीनी धोय ॥
रतन अमोलक नीकले, लख जननी सुख पाय । जगमगार तिनकी तहां, होत भये अधिकाय ॥'
यहां अनलंकारिक और सहज भाषा में माता के पुत्र के प्रति स्नेह की अभिव्यक्ति कैसी मनोहर है ! इसमें चमत्कारजन्य शब्दों का प्रयोग नहीं है, परन्तु अभिधात्मक शब्दों में भाव-सौकुमार्य हृदय को छूता है। भावप्रेषणीयता की दृष्टि से ऐसे स्थान भी स्तुत्य होते हैं । इसी प्रकार 'वरांगचरित' से उद्धृत दो पंक्तियां देखिए : .
ज्यों ज्यों भूप वरांग, जतन ते ताहि धिजावे । चे थिरता हेत, रोष करि त्यों त्यों धावे ॥
___ अभिधा में प्रस्तुत अश्व पर सवार वरांग कुमार का चित्र है। कलावादियों को यहाँ देखना चाहिए कि थोड़े से शब्दों में कितने कार्य-व्यापारों
१. धन्यकुमार चरित्र, पृष्ठ ३१ । २. वरांग चरित (पांडे लालचन्द), पद्य ११, पृष्ठ २०। ।