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भाषा-शैली
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(झ) भोग बुरी संसार में ।' (ङ) यह संसार सदा सुपने सम ।' (ट) पंचेन्द्रिय की प्रीति सों रे, जीव सहै दुख घोर ।' (ठ) जाको ब्याह, ताही को गीत ।
सारांश यह है कि विवेच्य कृतियों में अभिधा शक्ति का अधिक उपयोग हुआ है। आगे शब्द की दूसरी शक्ति (लक्षणा) विचारणीय है ।
लक्षणा
यह शब्द की दूसरी शक्ति है। साहित्य में अनेक स्थल ऐसे आते हैं जहाँ सीधे रूप में मुख्यार्थ ग्रहण नहीं हो पाता और वहाँ शब्द का रूढ़ि या प्रसंग के सहारे अर्थ-बोध कर लिया जाता है। यह शाब्दिक अर्थ-व्यापार जिस शक्ति के माध्यम से बोधित होता है, शब्द की वही शक्ति लक्षणा है । धर्मी के स्थान पर धर्म के प्रयोग से काव्य में चमत्कार की वृद्धि और अधिक रसात्मकता की सृष्टि हो जाया करती है ।
हमारे अध्ययन के ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर इस शक्ति का प्रयोग मिलता है । उदाहरणस्वरूप देखिये :
चन्द्रमुखी मन धारत है जिय अंत समें तोकों दुखदाई ।। इसमें ‘चन्द्रमुखी' शब्द की लक्षणा शक्ति द्रष्टव्य है। यह शब्द विपुल सौन्दर्य का प्रतीक बन कर आया है । इस शब्द में वह लाक्षणिक शक्ति भरी हुई है जिसकी पूर्ति शायद किसी अन्य शब्द से नहीं हो पाती । इसी प्रकार :
१. नेमिचन्द्रिका (आसकरण), पृष्ठ २३ । २. शत अष्टोत्तरी, पद्य ७७, पृष्ठ २५। ३. पंचेन्द्रिीय संवाद, पद्य १३१, पृष्ठ २५० । ४. नेमिनाथ चरित ।
शत अष्टोत्तरी, पद्य ८०, पृष्ठ २६ ।