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________________ २६० जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन वेटा थिति करि कोय, वेगि षबरि हम लीजियो । तुम आनन अषि दोय, इक बांई इक दाहिनी || इस चित्र की दूसरी पंक्ति पहिली पंक्ति से सम्बन्ध जोड़ती हुई चित्र के अर्थसौष्ठव को सामने रख रही है । बेटा ! तुम मेरे दायें-बायें नयन हो, नयनों की ज्योति हो । तुम लम्बे समय के लिए बन जा रहे हो। तुम्हारे न रहने पर मेरी आकुलता का कोई छोर नहीं होगा । लौटकर शीघ्र खबर लेना, नहीं तो तुम जानते हो कि नेत्रविहीना की क्या दशा होती है ? लक्षणा शक्ति का एक उद्धरण और प्रस्तुत है : देह कंवर को आंव तरु, पहुप सूर पण रूप । कीरति भई सुगंधता, अद्भुत अतुल अनूप ॥ लोक नेत्र भ्रमरा भये, परें अत्रिप्ता होय ॥ ' यहाँ कुमार की देह को आम का वृक्ष बना दिया है । उसका शौर्य आम्रवृक्ष के पुष्पों से समता रखता है, जिनकी शोभा और सुरभि दूर-दूर के लोगों को लुभाती है । यश में सुरभि नहीं होती किन्तु कुमार का यश आम्र-पुष्पों के संयोग से सुरभियुक्त है और कीर्तिरूपी पवन का सम्बल पाकर दूर तक पहुंचने की क्षमता रखता । इतना ही नहीं, कुमार का सुगंधिमंडित यश लोक-नेत्रों को अतृप्त भ्रमर बनाकर उन्हें अनवरत रूप से मंडराने के लिए विवश करता है । शब्द की लक्षणा शक्ति प्रस्तुत के लिए अप्रस्तुत विधान द्वारा एक अनूठा चित्र खड़ा कर रही है । सारांश यह है कि आलोच्य काव्यों में ऐसे अनेक चित्र भरे पड़े हैं जिनमें लक्षणा शक्ति का चमत्कार देखा जा सकता है। साथ ही उनके R. १ सीता चरित, पद्य ४३२, पृष्ठ ४६ । जीवंधर चरित ( दौलतराम ), पद्य १४३ - ४४, पृष्ठ १० । (क) हरि हरषित अति ही भयो, गयो राम के पास । आवत देण्यौ राम नें, दिन तें अधिक परकास ॥ - सीता चरित, पद्य ८६६, पृष्ठ ४६ । क्रमशः
SR No.010270
Book TitleJain Kaviyo ke Brajbhasha Prabandh Kavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalchand Jain
PublisherBharti Pustak Mandir
Publication Year1976
Total Pages390
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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