________________
भाषा-शैली
२७१
लोकालोक, सिद्ध, किंचित, चरम, द्रव्य, संताप, अनिष्ट, छत्र, अन्तर, कर्म, षट्रस, किंकर, प्रसाद, शिवपुर, निहार, दक्षिण, पुण्य, पाप, गज, सुकुमार, ऋषि, गति, उपकार, संगति, रसना, लोचन, तोरण, दुर्जन, भिन्न, अनादि, अविनाशी, चिदानन्द, ध्यान, हग, प्रगट, विषयाश्रित, भव, भ्रम, माता, सेवक, स्वामी, रंच, आयु, बाल, चेतन, सुन्दर, सुदृष्टि, मीन, दिवस, विभूति, शुक, व्योम, खग, व्याल, तत्त्व, स्वभाव, कोटि, कूप, काल, अलि, पल, प्राण, श्रवण, पंचेन्द्रिय, पतंग, कंचन, दीपक, पावक, अंजन, संकट, विष, वेलि, सम, जन्म, जरा, विषम, कंटक, परिग्रह, संपति, विकराल, निज, अघ, नवनिधि, लोकोत्तम, कल्पतरु, पवन, दुष्ट, कोष, कुल, अवतार, संत, पद, कमल, आधार, पत्र, पुंज, अति, सघन, विशाल, वन, अक्षत, कुंकुम, हेम, तंदुल, अष्ट, अक्षय, चपला, मरुभूमि, हस्ती, मद, पंकज, पुत्र, कलत्र, मित्र, विषधर, रुधिर, वज्र, कुठार, संसार, पर्वत, सहोदर, भ्राता, दर्पण, छवि, विप्र, महाराज, त्रिया, प्रोहित, देवकुमार, गृह, नृपति, मंगलाचरण, बसंत, विस्तार, शोथ, मोह, स्वर्ग, नरक, प्रिया, तात, भ्रमण, शोक, करुणा, प्राणी, सागर, न्याय, दिशा, पुनीत, द्वादश, कलंक, प्रतिज्ञा, सरस, पंच, परम, रूप आदि ।
इन तत्सम शब्दों का प्रयोग सामान्य रूप से प्रचलित शब्दों के रूप में हुआ है । भाषा की उदार प्रवृत्ति ने इन्हें अपने में घुला-मिला लिया है । इनके व्यवहार से भाषा संस्कृतनिष्ठ या दुरूह नहीं हो गयी है। अपनी सरलता और सहजता के कारण ये शब्द संस्कृत के होते हुए भी अपने प्रतीत होते हैं।
___पार्श्वपुराण', 'जीवंधर चरित', 'वर्द्धमानपुराण', 'शतअष्टोत्तरी', 'चेतनकर्म चरित्र' प्रभृति काव्यों में ऐसे शब्दों का अधिक प्रयोग हुआ है।
प्रायः सभी प्रबन्धकाव्यों में अनेक स्थानों पर तत्सम शब्द किंचित परिवर्तित होकर सरल बनकर आये हैं, यथा-दीरध (दीर्घ), कुसील (कुशील), दिच्छा (दीक्षा), अगनि (अग्नि), बरजत (वर्जत), बीथी (वीथी), सोक (शोक), मुनिंद (मुनीन्द्र), बान (बाण), विस्वास (विश्वास), प्रापति