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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
की क्षमता ही नहीं रखते, वरन् तत्सम्बन्धी चित्र को प्रस्तुत करने में भी बहुत सफल हैं । यहाँ 'ज्यों-ज्यों', 'त्यों-त्यों', 'भोग और संजोग', 'मनोहर और मनवांछित', 'तिसना और नागिन', 'लहर और जहर' शब्दों का प्रयोग वस्तुतः बड़ा आकर्षक है। साथ ही अभीष्ट भावोद्दीपन में बड़ा सहायक भी।
शब्द-योजना में वर्ण-मैत्री और वर्ण-संगति भी अपना स्थान रखती है। हमारे काव्यों में इनके अनेक उदाहरण मिलते हैं । बानगी के लिए देखिए :
कोटि कोटि कष्ट सहे, कष्ट में शरीर दहे,
धूम पान कियौ पै न पायो भेद तन को। ज्ञान बिना बेर बेर, क्रिया करी फेर फेर,
कियो कोऊ कारज न आतम जतन को ॥' यहाँ कृष्णवर्णांकित शब्दों पर दृष्टि डालिये । वर्गों में मैत्री भी है और संगति भी। बराबर मात्राओं के 'सहें' और 'दहे', 'बेर-बेर' और 'फेर-फेर' शब्दों का प्रयोग कितना प्यारा है ! 'कोटि-कोटि' के पश्चात् 'कष्ट सहे'
और उसके पश्चात् 'कष्ट में शरीर दहे' का प्रयोग अपनी सानी नहीं रखता। कुल मिलाकर कवि भाव को हृदय पर छा देना चाहता है । इसी प्रकार : - जो बैठो तो दृढ़ मति गहो । जो दृढ़ गहो तो पकरि न रहो।। जो पकरो तो चुगा न खइयो । जो खावो तो उलटि न जइयो।
जो उलटो तो तजि भजि जइयो ।' इसमें 'जो' और 'तो' की योजना कितनी हृदयस्पर्शी है ! पाठक सोचता है कि अभी कवि का कथन पूरा नहीं हुआ है, अतः उसका कोतूहल बढ़ता ही जाता है । फिर उसमें समवेत ध्वनि भी है । 'दृढ़ मति गहो', 'दृढ़,गहो', 'पकरि न रहो', 'पकरो तो चुगा न खइयो', 'खावो तो उलटि न जइयो', 'उलटो तो तजि भजि जइयो' का प्रयोग ब्रजभाषा की कोमल प्रकृति, शब्दसंगति और अर्थ की सरसता का परिचायक है।
१. शतअष्टोत्तरी, पद्य ६४, पृष्ठ २२। २. सूआ बत्तीसी, पद्य १४, पृष्ठ २.६६ ।