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भाषा-शैली
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जैसे संगीत के साज हाथ के इशारे से बोलते हैं, वैसे ये शब्द भी बोल रहे हैं। इन शब्दों में वैसी ही ध्वनि है, जैसी चित्र-प्रस्तुति के लिए आवश्यक होती है।
अभिप्राय यह है कि विवेच्य प्रबन्धकाव्यों में अनेक स्थलों पर ध्वनि उत्पन्न करने वाले चित्र उपलब्ध हैं । ध्वनि से इतर भाषा में गुणव्यंजक पदावली भी उसे उदात्तता प्रदान करती है । अब वही देखिए ।
गुण-व्यंजक पदावली
गुण काव्य-सौन्दर्य के तत्त्व हैं और रसोत्कर्ष के कारणरूप धर्म हैं। गुण शब्द के भी धर्म हैं और अर्थ के भी; इसीलिए काव्य में उनकी अनिवार्य सत्ता स्वीकार की गयी है । आलोच्य काव्यों में प्रसाद, माधुर्य और ओज, तीनों गुणों को व्यंजित करने वाले प्रसंग उपलब्ध हैं। उन पर सक्षेप में अनुशीलनात्मक दृष्टि डाली जा रही है ।
प्रसाद
हमारे काव्यों में अधिकांश स्थलों पर प्रसादगुणात्मक पदावली का प्रयोग हुआ दिखायी देता है । ऐसे स्थलों पर भाषा में अधिक सरल, प्रायः समास और तत्सम रहित शब्दों को व्यवहृत किया गया है। उदाहरण के लिए देखिए :
माता के जुग पद कों विलोकि । निज सीस नाय दीनी सूढोकि ।। पुनि जननी निज सुत को सुदेषि । अति त्रप्ति भई उर में विसेषि ॥ जग में माता सुत को निहारि । को हरष करे नाहीं उदार ॥
यह सीधे-सादे शब्दों में सहज अभिव्यक्ति है। अर्थ में कहीं कोई उलझन नहीं । सामान्य तत्सम शब्दों का प्रयोग अवश्य हुआ है, पर वे भी लावण्यमयी हैं । इन पंक्तियों के अर्थ की स्वच्छता में भाव की पवित्रता
१. जीवंधर चरित (नथमल बिलाला), पद्य १२५-२६, पृष्ठ ८६ ।