________________
२७८ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन प्रतीक हो । लगता है जैसे यह शब्दावली स्वयं महाकाल का रूप धारण कर आयी है । ऐसा ही चित्र और देखिए :
रणसिंगे बजहिं, कोउ न भज्जहिं, करहिं महा दोउ जुद्ध ।
युद्धविषयक प्रसंग के लिए ऐसे ही शब्दों का व्यवहार उचित कहा जाता है । 'रणसिंगे बज्जहिं, कोउ न भज्जहिं' में कैसी मार्मिक ध्वनि है। और भी उदाहरण दर्शनीय है :
अरी कोई सुरंग तुरंग नचावै हाँ। विवाह के अवसर पर सुन्दर घोड़ों को नचाने के लिए ध्वनि की दृष्टि । से 'अरी कोई सुरंग तुरंग नचावै हाँ' शब्दावली का प्रयोग दृश्य के ठीक अनुकूल है । 'सुरंग-तुरंग' दोनों शब्द वर्णमैत्री, आनुप्रासिकता और मधुर ध्वनि से सम्पुटित हैं । ऐसा ही एक उदाहरण और द्रष्टव्य है :
जीवां को बाड्यो रच्यो, पुकार कर सबही बिललाय तो। हिरड़ भिरड़ मांची जहाँ, नेमिकुमर देष्या निरताय तो।
बाड़े में घेरे गये पशुओं का चित्र है । पशुओं के पुकारने और आकुल होकर विलाप करने के लिए 'पुकार कर बिललाय तौ' तथा इधर-उधर आपस में पशुओं के भागने और टकराने के लिए 'हिरड़ भिरड़ मांची' शब्दों का प्रयोग ध्वन्यात्मकता का अच्छा उदाहरण है । शब्दों की सस्वरता का एक नमूना और दिया जाता है :
मृदंग धप धप बाजिता, चटपट चटपट बाजे ताल तौ। तबली बाजे पेम स्यौं, ककड़द ककड़द करत कंसाल तौ।
रासभणों श्री नेमि को॥ १. चेतन कर्म चरित्र, पद्य १६५, पृष्ठ ७१ । २. नेमीश्वर रास, पद्य १०२८, पृष्ठ ६० । ३. नेमिनाथ मंगल, पृष्ठ ३ ।।
नेमीश्वर रास, पद्य ७११, पृष्ठ ४२ ।