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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
खिल रही । प्रथम दो पंक्तियों में अभीप्सित भाव को प्रकट करके अन्तिम पंक्ति में लोकरंजनात्मक नीति की बात भी कह दी है। पूरे अवतरण में प्रसाद गुण विकसित हो रहा है । इसी गुण का दूसरा उदाहरण देखिए
:
प्रस्तुत अवतरण के शब्द प्रायः समास और संयुक्ताक्षरों से रहित हैं तथा स्वत: ही अपना अर्थ दे रहे हैं । यहाँ बिना लाग-लपेट के दृश्य का रस चित्त में प्रवाहित हो रहा है । इसमें प्रयुक्त सरल शब्दावली सहज, भावाभिव्यंजक और प्रसाद-गुण-युक्त है । इसके साथ ही 'कोई-कोई' की आवृत्ति भावोत्कर्ष में विशेष सहायक है । अन्य शब्द भी अपनी सरलता की प्रसादी बाँट रहे हैं। ऐसा ही एक और चित्र उद्धृत है :
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कौतिग कारण पुरति निरषं रूप कुमर लषि विह्वल धाइ । कोई रसोई घर सूनो तजि, कोई दोड़ी सिंगार छुड़ाई || कोई छोड़े निज सुत रोवतो, लोभै पर सुत लेइ छुड़ाइ । ज्यों ज्यों रूप कुमर को देखें, हर तिय निरषै अधिकाइ ॥ '
१.
कितने छोटे-छोटे और स्फूर्त शब्दों का प्रयोग है इसमें ! इन छोटे-छोटे शब्दों में प्रसाद-गुणात्मक उत्कर्ष विद्यमान है । प्रसाद गुण की ओट में ही चित्रभाषा चित्र को संवार रही है । एक उदाहरण और अवलोकिये :
२.
रतन जड़ाव जड़े नील पीत स्याम हरे,
रेसम की डोरनि सो मोतिन माल लावहीं। भांति भांति बसन बिछौना सुख आसन के, पोढ़िये जु नेमिनाथ जननी झुलावहीं ॥
२
कितीक बाल डाल तें, झुमात गैल चालतें
गिरै प्रसून हालतें, उठाय गोद में भरें । कितीक बाम चालती, सुकंठ माल मालती,
लगें समीर हालती सुटूटि भूव में परें ॥
श्रेणिक चरित, पद्य ४२४, पृष्ठ ३० । नेमिचन्द्रिका (आसकरण ), पृष्ठ ६ ।