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भाषा-शैली
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ध्वनिमूलकता
काव्य में अनेक स्थलों पर प्रयुक्त वर्ण या शब्द ध्वनि-लहरियाँ उद्भूत करते हैं । वर्ण या शब्दों की ध्वन्यात्मकता चित्र भाषा को जन्म देती है। कविता के शब्द सस्वर होने चाहिएँ, जो बोलते हों; सेब की तरह जिनके रस की मधुर लालिमा जिनमें भीतर न समा सकने के कारण बाहर झलक पड़े, जो अपने भावों को अपनी ही ध्वनि में आँखों के सामने चित्रित कर सकें।'
इन प्रबन्धों में अनेक ऐसे प्रसंगों की अवतारणा हुई है, जिनमें शब्दों से ध्वनि उत्पन्न हुई हो । 'सीता चरित', 'चेतन कर्म चरित्र', 'नेमीश्वर रास', 'पार्श्वपुराण', 'जीवंधर चरित', 'शतअष्टोत्तरी', 'नेमिनाथ मंगल', 'श्रेणिक चरित', 'नेमि-राजुल बारहमास संवाद' प्रभृति रचनाओं में ध्वनिमूलक चित्र अधिक दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे :
अंधकार छायौ चहुँ ओर । गरज गरज बरखें धन घोर । झरै नीर मुसलोपम धार । वक बीज झलक भयकार ॥
यहाँ घोर घन की गर्जना के लिए 'गरज गरज' का प्रयोग तद्नुकूल ध्वनि दे रहा है। बादलों से झरते हुए नीर के लिए 'झरै' और बिजली की कौंध के लिए 'झलक' शब्द बड़े ही उपयुक्त हैं । चारों ओर भरे हुए अंधकार के लिए 'छायो' शब्द में ध्वनि की सूक्ष्म लहरें विद्यमान हैं। इसी प्रकार :
किलकत बेताल काल कज्जल छबि सजहिं । भौं कराल विकराल भाल मदगज जिमि गजहि ॥
इन शब्दों की ध्वनि से वह चित्र सामने आता है, जो भयानकता का
१. पंत : पल्लव, प्रवेश, पृष्ठ १७ ।
२. पार्श्वपुराण, पद्य १६, पृष्ठ १२३ । ___३. वही, पद्य २०, पृष्ठ १२३ ।