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जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
फारसी
जीन, खूब, खुश, सिताब (शीघ्र), हाजिरी, परदा, दुश्मन, बजार, जोर, सिरदार, सरदार, गुमान, जहाँन, दरबार, अजमाइस (आजमाइश), आखिर, बाजूबंद, खिदमतगार, चाबुक, गरीब-निवाज, गुन्हों (गुनाह), मोजा, जामा, दिल, चशम (चश्म), नजदीक, नाहक, गोश (कान), खिलाफ, फौज आदि।
अरबी
खसम, दगा, करार, अरज (अर्ज), खबर, जीन, खरच, गनीम, जवाब, गाफिल, उमर, साहब, महल्ला, वजीर, हुजूर आदि।
उपर्युक्त विदेशी शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में इतना कह देना और अभीष्ट है कि उनका प्रयोग अन्य काव्यों की अपेक्षा 'सीता चरित', 'चेतन कर्म चरित्र', 'शत अष्टोत्तरी' आदि काव्यों में कुछेक स्थलों पर अधिक मात्रा में हुआ है।
कहना न होगा कि विवेच्य काव्यों में तद्भव शब्दों की प्रधानता है। उनसे कम तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है । इसके पश्चात् यदि देखा जाये तो उनमें देशज शब्दों के साथ-साथ विदेशी शब्दों में अरबी तथा विशेषकर फारसी शब्दों का भी व्यवहार हुआ है । आगे चलकर अब 'शब्द-योजना' द्रष्टव्य है। शब्द-योजना
शब्दों का उचित और सटीक प्रयोग भाषा को सुन्दर, सशक्त और प्रभविष्णु बनाता है। उनका असंगत प्रयोग भाषा को कितना कुरूप और निर्जीव बना देता है, यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है। अतएव भाषा के प्रसंग में शब्द-योजना पर विचार कर लेना उचित होगा।
समालोच्य प्रबन्धों में अधिकांश स्थलों पर शब्दों का सुसंगत प्रयोग हुआ दिखायी देता है, जैसे :