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२७२ जैन कवियों के ब्रजभाषा-प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन (प्राप्ति), धरम (धर्म), छिमा (क्षमा), अवसि (अवश्य), सरूप (स्वरूप), सुपन (स्वप्न), दुद्धर (दुर्धर्ष), चारित (चारित्र), आतम (आत्म), परमातम (परमात्म), सुभाव (स्वभाव), ग्रीषम (ग्रीष्म), रतन (रत्न), पुनम (पुण्य), जथाजोग (यथायोग्य), निठुर (निष्ठुर), लोयन (लोचन), सरवर (सरोवर), सरन (शरण), पूरब (पूर्व), स्याम (श्याम), ग्यानि (ज्ञान), रितु (ऋतु), किरया (क्रिया), मुकति (मुक्ति), मोष (मोक्ष), लक्षमन (लक्ष्मण), संजम (संयम), नास (नाश), निस (निशि), परकास (प्रकाश), तुरत (तुरन्त), मारग (मार्ग), परपंच (प्रपंच), छिन (क्षण), परगट (प्रकट), भरम (भ्रम), करम (कर्म), सनेह (स्नेह), निहचे (निश्चय), जनम (जन्म), पुग्गल (पुद्गल), किलोल (कल्लोल), जोबन (यौवन), नैन (नयन), ततकाल (तत्काल), परधान (प्रधान), लक्षमी (लक्ष्मी), अरन्य (अरण्य), मधि (मध्य), निरमल (नर्मल), दरब (द्रव्य), भूपत (भूपति), भ्रमन (भ्रमण), जुगल (युगल), अरघ (अर्ध्य), धनि (धन्य), सिव (शिव), थंम (स्तम्भ), सिषर (शिखर), परकार (प्रकार), दिसा (दिशा), पिरथी (पृथ्वी), ध्रिग (धिक्), आभूषन (आभूषण), पदम (पद्म), कुसल (कुशल), असुभ (अशुभ), सिंगार (शृंगार), विसाल (विशाल), अंतरिष (अन्तरिक्ष) आदि ।
तद्भव शब्द
आलोच्य काव्यों में तत्सम शब्दों की अपेक्षा तद्भव शब्द अधिक आये हैं। ये शब्द प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश आदि से चलकर हिन्दी में अपने हो गये हैं और जनवाणी में समा गये हैं । इन शब्दों के सहज प्रयोग से ब्रजभाषा का सौन्दर्य ही नहीं बढ़ा, इसका शब्दकोश भी बढ़ा है। ये शब्द व्यावहारिक, कर्णप्रिय और उचित स्थान पर अपने प्रयोग के कारण भाषा की शोभा बढ़ाते हैं। कहीं-कहीं ये शब्द ग्रामीण ब्रजभाषा की झलक भी देते हैं। प्रबन्धों में व्यवहृत तद्भव शब्दावली में से थोड़े से शब्द द्रष्टव्य हैं :
आंगन, औसर, परस, आगौनी, हिय, फागुन, भीत, आंब, सांझ, पहर, .. कंगन, दुति, सन्मुख, थिरता, केवट (केवर्त), चोरी, वीन, बलमा, कान, पूतली, सेज, सेठ, चकवा, मोर, भौंह, भौन, कान्ह, विनट्ठी, दिट्टी, दिढ़, ।