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भाषा-शैली
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बेग, पछताना, समाय, दौज, दोयज, चांद, जतन, आग, बिरियाँ ( वेला), वखान, उपज्यो, बराती, पीछे, बरस, सींग, बादर, सुगन, मझार, औगुन, दिन, छत्री, सुमरि, चौथी, मंदिर, चमकाय, अंगुरी, तीन, सास, सावन, पंषी, काठ, गाम, गंवार, हाथ, खोज, सिय, आधी रात, जांचन, ऊँची, लाज, उछाह, खेत, खेल, खींचं, बात, चार, च्यारि, सीख, सोरह, विसारि, काज, जीत, निसंक, उराहतो, विलमों, गांठ, मंझार, रेन, धीर, गुफा, बरसाय, अगाऊ (अग्र), सिखवै, गज्जहि, बीजुली, राषि, कांप आदि ।
देशी शब्द
प्रबन्धकाव्यों में व्यवहार के देशज शब्दों का भी प्रयोग हुआ है किन्तु उनकी संख्या अधिक नहीं है । स्थान विशेष पर दैनिक बोलचाल में जिन शब्दों का आदान-प्रदान होता है, वे स्वत: ही काव्यों में स्थान पा गये हैं, उदाहरणार्थ
सवासनी ( वर और कन्या की बहन), मरुट (मरवट, रोली आदि के बिंदुओं से दूल्हा के मुख को सजाना), षणि (खन, भवन आदि की मंजिल ), फेंटा ( साफा ), औंगा ( एक प्रकार का पौधा जिसके स्पर्श मात्र से छोटे-छोटे काँटे स्वतः ही शरीर या शरीर के वस्त्रों में लग जाते हैं), अरलू (पौधा), खिरहटी (एक छोटा पौधा ), खेजड़ ( एक छोटा पौधा), नेग, झाग, झकोर, रीझ, गोली, बुहारी, डेरा, सेहरा, चिनगारी, बाड़ी (पशुओं को बाँधने का स्थल), लार (साथ), टेर, ढील, घुरघुर, उतावला आदि ।
विदेशी शब्द
आलोच्यकाल मुस्लिम शासनकाल था । हिन्दू-मुस्लिम सम्पर्क से फारसी, अरवी आदि भाषाओं के शब्द हिन्दी में घर कर चुके थे । हिन्दी की उदार प्रवृत्ति ने इन शब्दों को अपना लिया है । हमारे काव्यों में ऐसे शब्द सहजत: मिल जाते हैं । उनमें अरबी भाषा की अपेक्षा फारसी के शब्दों की अधिकता है ।