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जैन कवियों के ब्रजभाषा प्रबन्धकाव्यों का अध्ययन
आलम्बन और प्राय: इन्द्र आश्रय हैं । आलम्बन के गुणादि उद्दीपन विभाव है । चित्त वृत्ति की एकाग्रता और हृदय में हर्षादि का उद्व ेलन अनुभाव हैं । हर्ष, सुख, स्मृति आदि संचारी हैं । इन सबसे पोषित भक्ति-भाव भक्ति रस की अनुभूति कराता है ।
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'शील कथा', ' ' सीता चरित', 'श्रेणिक चरित" आदि प्रबन्धों में भक्ति रस के कतिपय स्थल अच्छे बन पड़े हैं। इनमें भक्त हृदय की समर्पणभावना का उन्मेष दिखायी देता है ।
करुणा सागर अरज हमारी। तारन तरनि सदा सुखकारी ॥ दीन दयाल सुनो तुम सोय । तुम बिन प्रभु और नहि कोय ॥ मात पिता तुम ही जग माहीं । तुम बिन बांधव जग में नाहीं ॥ मैं तो जिनवर शरण तिहारी । अब राखो प्रभु लाज हमारी ॥ - शीलकथा, पृष्ठ ७५ ।
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२. सीता चरित, पद्य २०८७ से २०६६, पृष्ठ ११६ ।
३. चित निरमल घरि प्रणमें जिन पद अधिक भगति उर धार । अष्ट द्रव्य शुभ सेथी पूजा भूपत करें अधिकार || ॥ श्री अरहंत महिमा अति बनी हो ॥ सुगंध मिलि पूजे श्री जिनराइ | नासन को कारण नृप मन लाइ ॥ ॥श्री अरहंत " सुगंध सुभ अक्षत पूज कराई । कारण भूपत जी पूजे मन भाइ ॥ ॥श्री अरहत
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भासै त्रिभुवन आधार । गनधर आदि मुनि सार ॥ ॥श्री अरहंत.......... ************** |
-श्रेणिक चरित, पद्य १२१०, १२, १३, २०, पृष्ठ ८२-८३ ।
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श्रीखंड कुंकुम कपूर संसार भ्रमन आताप
तंदुल उजल अषंड अक्षय पद प्राप्त के
जुगल हस्त जोरि स्तुति तुम गुण पार लहै नहीं सुरपति