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रस-योजना
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सीता क्रूर रावण के बन्धन में पड़ी हुई है। रावण के सारे प्रयत्न निष्फल चले जाते हैं, परन्तु सीता उसकी शरण में नहीं जाती। अतः हार कर रावण अपनी विद्या से काम लेता है । वह उसके मानस के कोने-कोने को भय से आच्छादित करने के लिए उसके चारों ओर भय का विकराल संसार रच देता है । यहाँ भयाक्रान्त सीता के हृदय में स्थायी भाव भय भयानक रस की उत्पत्ति में समर्थ हुआ है।
और सिंघ पन्नग विकराल । करै सवद कोप्यौ ज्यौं काल ॥ अर मरकट हड़हड़ करै । भै उपज मुझ सरणे धरै ॥ आये पहले पहर मतंग । तिण देष कांप सब अंग ॥ सीता रही बहौत भै षाय । पं रावण सरणे नहिं जाय ॥ X
X आयौ पन्नग फण करि दंड । जीभ चपल क्रोधी परचंड ॥ जाकी हूक जलै वनराय । सीता रही बहोत मैं षाय ॥
'पाशवपुराण' में भय का एक दृश्य अपनी समता नहीं रखता। उसका एक-एक शब्द भय से सिक्त है; किन्तु वह रस दशा को नहीं पहुंच सका है क्योंकि आश्रय के हृदय पर उसका कोई प्रभाव नहीं होता जैसे कि मणिदीपक पर पवन के झकोरों का कोई प्रभाव नहीं होता। यह स्थल रसाभास की कोटि में रखा जा सकता है :
किलकिलत बेताल, काल कज्जल छबि सज्जहिं । भौं कराल विकराल, भाल मदगज जिमि गजहिं । मुंडमाल गल धरहिं, लाल लोयननि डरहिं जन । मुख फुलिंग फुकरहि, करहिं निर्दय धुनि हन हन ॥ इत्यादिक उतपात सब, वृथा भये अति घोर । जैसे मानिक दीप कौं, लगे न पौन झकोर ।
१. सीता चरित, पद्य ६६८, ६६, ७२, पृष्ठ ५३ । २. पार्श्वपुराण, पद्य २२-२३, पृष्ठ १२३ ।